(रमेश तिवारी)

देश में यह बात अब अच्छी तरह समझी जा रही है कि महिलाओं के आर्थिक विकास का देश के आर्थिक विकास से सीधा नाता है। यह बात तो काफी पहले से समझी जाती रही है कि देश के आर्थिक संकट का प्रभाव पुरुषों से ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है। लेकिन देश के बजट का पुरुषों और महिलाओं पर किस तरह अलग-अलग असर पड़ रहा है, इसे बताने वाली जेंडर बजटिंग की प्रक्रिया ज्यादा स्पष्ट और दमदार बनाने की जरूरत महसूस की जा रही है।

लैंगिक असमानता दूर करने के लिए पूरी दुनिया में जेंडर बजटिंग को एक सशक्त माध्यम समझा जाता है। यह महिलाओं के लिए अलग बजट नहीं है। इसके जरिये सरकारी बजट को इस खांचे में फिट करके देखा जाता है कि क्या इसका लाभ पुरुषों और महिलाओं, दोनों तक पहुंच पाया। भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा महिलाओं का है, लेकिन स्वास्थ्य, शिक्षा, आर्थिक अवसर आदि मानकों पर वे पीछे रह जाती हैं। संसाधनों तक महिलाओं की पहुंच कमतर होने के कारण उन पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है। प्राइमरी स्कूलों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों के ड्रॉपआउट रेट को अलग-अलग देखना होगा। अगर ड्रॉपआउट की दर में बैलेंस के लिए सरकारी बजट की ओर से कोई विशेष कोशिश होती है तो वह जेंडर बजटिंग का हिस्सा माना जाएगा।

जेंडर बजटिंग को महज बही-खाते तक सिमटाए रखने की जगह नीतियां बनाने, उन पर अमल करने और दोबारा गौर करने के दौरान इसे लगातार शामिल रखना होता है। जानकार बताते हैं कि पड़ोसी देश बांग्लादेश में इस सिद्धांत को अच्छी तरह लागू किया जा रहा है। वहां राष्ट्रीय बजट को मीडियम टर्म बजट फ्रेमवर्क के आधार पर तैयार किया जाता है और जेंडर बजटिंग इस फ्रेमवर्क का हिस्सा है। सारे खर्चों को अलग-अलग बांट कर देखा जाता है कि इसमें कितना हिस्सा महिलाओं को फायदा पहुंचाएगा। बजट के साथ ही जेंडर बजट रिपोर्ट भी पेश की जाती है।भारत में 2001 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्त मंत्री ने जेंडर बजटिंग का जिक्र किया था। फिर मंत्रालयों की सालाना रिपोर्ट में इस मुद्दे को शामिल किया जाने लगा। जेंडर बजट के प्रकोष्ठ बने हैं। 2005-06 से वित्त मंत्रालय के बजट सर्कुलर के एक हिस्से के तौर पर जेंडर बजट पर नोट जारी किया जाने लगा। 2013 में राज्यों के लिए रोडमैप की गाइडलाइंस भी जारी की गईं। 16 से ज्यादा राज्यों में इसे अपनाया गया है।

महिला अधिकारों से जुड़े लोगों का मानना है कि भारत में हर विभाग के जेंडर बजट का डेटा अब भी साफ नहीं है। एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि केंद्र सरकार ने 2017-18 में 31390 करोड़ रुपये उन स्कीमों को दिए, जो महिलाओं के लिए थीं। लेकिन विरोधियों का कहना है कि इसमें से 23 हजार करोड़ रुपये तो अकेले प्रधानमंत्री आवास योजना में दिए गए, जो सिर्फ महिलाओं की योजना नहीं है। यह भी शिकायत है कि जेंडर बजटिंग के लिए महिला और बाल विकास मंत्रालय नोडल एजेंसी है, लेकिन उसे इतने अधिकार नहीं दिए गए कि वह जेंडर बजटिंग को अपने असली रूप में लागू कर सके। पिछले बजट में मंत्रालय का आवंटन बढ़ा था, लेकिन इस बढ़ोतरी को कुल व्यय का महज 1 फीसदी हिस्सा आंका गया। सभी मंत्रालयों को मिलाकर जेंडर बजट 5 फीसदी होने का अनुमान है। बजट में जो टैक्स छूट दी जाती है, उसमें जेंडर के आधार पर प्राथमिकता देश में बड़ी जरूरत समझी जाती है। प्रॉपर्टी में निवेश पर लैंगिक आधार पर टैक्स छूट मिले तो इससे महिलाओं के अधिकार बढ़ेंगे।(NBT)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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