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*By_शिवानंद द्विवेदी*

किसी भी व्यक्ति के सशक्त होने का मानदंड क्या हो सकता है? इसका सबसे करीब उत्तर नजर आता है-आर्थिक मजबूती। जो व्यक्ति आर्थिक तौर पर जितना संपन्न होता है, समाज के बीच वह उतने ही सशक्त तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। भारत में गरीबी एक समस्या की तरह आज भी पैबस्त है। आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने समाजवाद आधारित आर्थिक नीतियों पर चलने का तय किया, जिसे लोक कल्याणकारी राज्य के रूप भारत की दशा-दिशा तय करने का कारगर हथियार बताया गया था। 1आजादी के लंबे समय बाद तक लोक कल्याण की नीतियों को राज्य ने अपने ढंग से लोगों तक पहुंचाने की कोशिश की। चाहे वह सब्सिडी हो या किसी किस्म की आर्थिक मदद। मगर आर्थिक सहायता के नाम पर जो धन राजकोष से जरूरतमंदों के लिए भेजा गया, वह उन तक ठीक ढंग से नहीं पहुंचा। यह सामान्य स्वीकार्य तथ्य है। खुद पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि जरूरतमंदों के लिए जो एक रुपया भेजा जाता है, वह नीचे तक जाते-जाते 15 पैसा हो जाता है, लेकिन सवाल है कि आखिर वह 85 पैसा जाता कहां है? अगर लोक कल्याण के लिए जनता को भेजी गई राशि उसे मिलेगी नहीं तो उसकी आर्थिक विपन्नता का उन्मूलन कैसे होगा? ऊपर से नीचे तक 85 पैसा पचा जाने वाला जो तंत्र था, वही देश के करोड़ों गरीबों की बदहाली का लंबे समय तक कारण बना रहा।

देश की जनता के लिए दिया जाने वाला धन उन्हें शत-प्रतिशत मिले, इसका सर्वाधिक व्यावहारिक उपाय सिर्फ यही था कि जहां से पैसा दिया जाए और जिसे दिया जाए, के बीच सीधा विनिमय हो। यानी जनता का लाभ सीधे उसके हाथ में जाए। इसी सोच के साथ 2014 में भाजपा नीत सरकार बनने के बाद इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुआयामी प्रयास शुरू किए। भारत जैसे देश के लिए इस प्रणाली का उपयोग करना 2014 तक कठिन था, क्योंकि देश के बीस करोड़ से ज्यादा ऐसे निम्न मध्यम वर्ग के लोग हैं, जिनके पास बैंक के खाते तक नहीं थे। राष्ट्रीय अर्थतंत्र में उनकी कोई उपस्थिति नहीं थी। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी की प्रणाली अव्यवहारिक तो थी ही, असफल भी होनी थी, लेकिन केंद्र सरकार ने जनधन योजना के माध्यम से बीस करोड़ से अधिक लोगों को बैंक से जोड़ने की सफल मुहिम चलाई। इसका नतीजा यह हुआ कि की राह आसान हुई। चाहे रसोई गैस की सब्सिडी हो, यूरिया सब्सिडी हो, छात्रवृत्ति हो अथवा राजकोष से आम लोगों को दिए जाने वाले किसी भी लाभ का मुद्दा, पैसा सीधे जरूरतमंदों के बैंक खातों में पहुंचने लगा। आज राज्य द्वारा दिए जाने वाले लाभ से नागरिकों को आर्थिक मजबूती प्रदान करने का एक कारगर माध्यम बन रहा है। 1अभी सरकार अधिक से अधिक क्षेत्रों में इसका उपयोग करने की दिशा काम करती दिख रही है। प्रधानमंत्री मोदी कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि से न केवल लाभार्थियों को उनका पूरा पैसा मिला है, बल्कि 57,000 करोड़ रुपये की सरकार को बचत भी हुई है। अतीत में निश्चित ही यह 57,000 करोड़ रुपया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता रहा होगा। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2017-18 में 54,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि इस इस योजना के तहत हस्तांतरित की गई है। का इस्तेमाल 56 मंत्रलयों की 393 योजनाओं में किया जाना है। इस योजना के लागू होने से अब तक 2,36,946 करोड़ रुपये लोगों के खातों में भेजे जा चुके हैं।

बहरहाल, उपर्युक्त आंकड़ों के आलोक में यदि का मूल्यांकन करें तो दो तथ्य निकलकर सामने आते हैं। पहला, इस प्रणाली को व्यवहार में लाए जाने से राजकोष द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाने वाली मदद में पारदर्शिता आई है। दूसरा, सब्सिडी या अनुदान की राशि सीधे लाभार्थी के खाते में पहुंचने से उनकी आर्थिक स्थिति में मजबूती स्वाभाविक है। आर्थिक विपन्नता को खत्म करने और जरूरतमंदों को आर्थिक रूप से सशक्त करने में भविष्य में यह प्रणाली और उपयोगी सिद्ध होगी। ऐसा अनुमान अभी इसके मिल रहे लाभों एवं इसके व्यवहारिक दृष्टिकोण को देखते हुए समीचीन प्रतीत होता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री एवं मौद्रिक नीतियों पर शोध करने वाले मिल्टन फ्रीडमैन को सर्वाधिक व्यवहारिक एवं लोक कल्याण के लिए उपयोगी तरीके के रूप में प्रस्तुत किया था। यह व्यवहारिक इसलिए भी है क्योंकि जब आपका धन आपके हाथ में होता है तो आपके पास उस धन को खर्च अपनी वरीयता की जरूरत एवं पसंद के अनुरूप खर्च करने की स्वतंत्रता होती है। किसी व्यक्ति के लिए धन खर्च करने की क्या प्राथमिकता होगी, यह उसके अलावा अगर कोई अन्य तय करे तो शायद वह उतना उपयोगी नहीं होगा, जितना उस धन का मालिक स्वयं अपनी पसंद से खर्च करे।

समाजवादी अर्थनीति की यह एक बड़ी कमी रही है कि वह व्यक्ति के निजी जरूरत एवं पसंद अथवा नापसंद को तरजीह न देकर सामूहिकता में संसाधन देने के लिए राज्य व्यवस्था का उपयोग करता है। किसी ऐसे व्यक्ति जिसे भोजन की आवश्यकता हो उसे राज्य व्यवस्था भोजन मुहैया कराए, इससे बेहतर है कि उसे भोजन के लिए जरूरी धन मुहैया करा दे। धन मुहैया कराने का लाभ यह होगा कि भूखा व्यक्ति भोजन अपनी पसंद का कर सकेगा। सेवा क्षेत्र के अनेक ऐसे उपक्रम हैं जहां को अगर लागू किया जाए तो देश को न सिर्फ एक पारदर्शी अर्थव्यवस्था प्राप्त होगी बल्कि आर्थिक स्वावलंबन के मामले में भी उचित लक्ष्यों को हासिल करते हुए हम लोगों को आर्थिक रूप से सशक्त बना पाएंगे।(DJ)
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)
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