घरेलू दुर्बलताएं और बाहरी अनिश्चितताएं नए साल में भी भारतीय विदेश नीति को तय करेंगी।

श्याम सरन, (लेखक पूर्व विदेश सचिव और फिलहाल सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ अध्येता हैं)

विदेश नीति को प्रसारवादी स्वरूप देने की मोदी सरकार की मंशा और उसकी जोशीली आकांक्षाओं को वर्ष 2017 में भारतीय राज्य की संस्थागत कमजोरियों और उसकी संरचनात्मक रुग्णता का सामना करना पड़ा। आंखों को भाने वाली घटनाएं, उच्च-स्तरीय विदेश दौरे और खुद प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत कूटनीति भी अपेक्षित परिणाम दे पाने में इस संस्थागत अक्षमता की भरपाई नहीं कर पाई। दूसरे देशों के साथ संबंधों में मौजूद खामियां दूर करने के कहीं अधिक मुश्किल काम को अंजाम देने के दबाव ने कभी-कभी तो पहले से ही कमजोर क्षमताओं को लगभग शून्य ही कर दिया। वैसे भारतीय विदेश नीति की समग्र संकल्पना काफी ठोस है। पड़ोसी देशों को अहमियत देने जैसे तमाम बिंदुओं को अच्छी तरह रेखांकित किया गया है। भारत की ऊर्जा सुरक्षा और अपने 60 लाख से अधिक भारतीय कामगारों के हितों को ध्यान में रखते हुए खाड़ी देशों और ईरान के साथ अधिक उद्देश्यपरक संपर्क स्थापित किया गया है। इसी तरह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ संबंधों को विस्तार देने में भी अपेक्षाकृत कम हिचकिचाहट नजर आई है। दक्षिण-पूर्व एशिया अब भी भारतीय विदेश नीति के एजेंडे में शीर्ष पर है। आसियान के सभी सदस्य देशों के शासन प्रमुखों को 2018 के गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होने का निमंत्रण देना एक चतुराई भरा कदम है।

समस्या यह है कि हम अपनी प्रसारवादी विदेश नीति को अंजाम देने या जरूरत पडऩे पर अपनी गलतियां दुरुस्त करने के लिए जरूरी संस्थागत एवं मानव संसाधन क्षमताओं का विकास नहीं कर पाए हैं। मसलन, पाकिस्तान अब भी हमारी विदेश नीति का बड़ा हिस्सा ले लेता है जबकि हमारी नीति उसे अलग-थलग करने की रही है। एक अजीब आलस्य हमें इसकी समीक्षा से रोकता है। यह सच है कि भारतीय विदेश नीति को एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय परिवेश में काम करना पड़ रहा है जो लगातार जटिल होने के साथ त्वरित बदलावों से भरा है। भू-राजनीतिक स्थिति में बदलाव का दौर जोखिम वाला होता है। डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही लगातार अनिश्चितताएं और अधिकांशत: अरुचिकर अचरज दिख रहे हैं। यूरोप अब भी ब्रेक्सिट के चलते पैदा हुए गतिरोधों और पूर्वी यूरोप के सदस्य देशों की नाफरमानी से निपटने में फंसा हुआ है। बहुस्तरीय संस्थाओं और शासन-सत्ताओं को हाशिये पर धकेला जा रहा है। चीन ने महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया है और खुद के लिए सामंतवादी प्राधिकारों का दावा करने में अब कम संकोच दिखाता है। हमारे उप-महाद्वीप के पड़ोसी देशों को चीन अपने विस्तारवाद का हिस्सा बनाने की कोशिश में लगा हुआ है जिससे नए साल में भारत की चिंताएं और भी बढ़ेंगी।

इसके साथ ही कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु संकट गंभीर रूप अख्तियार कर सकता है जिसका अंत दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच खतरनाक संघर्ष के तौर पर हो सकता है। उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार कार्यक्रम पर नकेल कसने का वक्त कभी का बीत चुका है। इस मामले में इकलौता रास्ता यही हो सकता है कि परमाणु संकट को और गंभीर होने से रोका जाए। हालांकि अब भी कूटनीतिक हलकों में ऐसे मिथकों पर यकीन बना हुआ है कि चीन अपने इस पड़ोसी देश को रास्ते पर ला सकता है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा। न ही वह उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध लगाएगा क्योंकि इससे वहां पर सत्ता परिवर्तन के आसार बन सकते हैं। लेकिन उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोक पाने में किसी भी तरह की नाकामी जापान और दक्षिण कोरिया पर अरुचिकर विकल्प अपनाने का दबाव डाल सकती है। क्या ये दोनों देश परमाणु खतरे का मुकाबला करने के लिए खुद को भी परमाणु हथियारों से लैस करने के बारे में सोचेंगे? भारत पर इन घटनाओं का गहरा असर पड़ेगा। इसमें तमाम जोखिम होंगे लेकिन यह कई अवसर भी पैदा करेगा।

विदेशी अनिश्चितताओं से निपटने के लिए विदेश नीति से संबंधित मजबूत संस्थानों और बड़ी संख्या में काबिल राजनयिकों की जरूरत पड़ेगी ताकि जोखिम कम करने के साथ ही भारत के हितों का भी ध्यान रखा जा सके। मेरा मानना है कि भारत जैसी उभरती शक्तियों के लिए मौजूदा वक्त भू-राजनीतिक संक्रमण का है जो उनका प्रभाव बढ़ाने और उनके हितों का पोषण ही करेगा। एक दृढ़ एवं व्यवस्थित भू-राजनीतिक परिदृश्य की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उसमें नई ताकतों के लिए कम अवसर होते हैं। ऐसे में ताजा अंतरराष्ट्रीय हालात भारत के लिए कुछ हद तक अनुकूल साबित हो सकते हैं।न तो स्थापित शक्तियां और न ही उभरती ताकतें यह चाहेंगी कि लगातार बदलता परिदृश्य एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप में तब्दील हो जिसमें किसी एक या दूसरे देश का दबदबा हो। यह अहसास मजबूत हो रहा है कि अमेरिका की वैश्विक उत्कृष्टता का दौर अब बीत चला है और पूरी दुनिया नहीं तो एशिया पर चीन का प्रभुत्व स्थापित होने की संभावना काफी अधिक है। चीन छोटी-छोटी शक्तियों के एक संकेंद्रित ढांचे के जरिये यह मुकाम हासिल करने की पूरी कोशिश करेगा। अगर ऐसा नहीं होने देना है तो भारत की भूमिका काफी अहम होगी और चीन को भी इस सच्चाई का अहसास है।

कलाम विवाद की वजह और मंशा चाहे जो भी रही हो, चीन की कड़ी प्रतिक्रिया से यह जरूर लगा कि पड़ोसियों की सीमा में लगातार आगे बढऩे की उसकी आदत पर कड़ा एतराज जताने से वह अचंभित और व्यथित है। उसके बाद भारत ने शी चिनफिंग के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बनने से भी इनकार कर दिया था।

वर्ष 2018 में बड़ा मुद्दा यह होगा कि क्या भारत एशिया और विश्व स्तर पर उभरती व्यवस्था को आकार देने में अपनी अहमियत का लाभ उठा सकता है? भारत को उच्च वृद्धि पथ पर अग्रसर होने के लिए अपने प्रमुख साझेदार देशों की आर्थिक एवं तकनीकी संसाधनों का दोहन करना होगा। अगर भारत अपने सहयोगियों की मदद से नई व्यवस्था को आकार देता है तो उससे शक्ति असमता कम करने के साथ ही चीन को भी साधा जा सकेगा। जैसे, जापानी कंपनियां अपना निवेश एवं बाजार चीन से बाहर ले जाना चाहती हैं और केवल भारत ही ऐसा देश है जो उन्हें उस तरह का विकल्प मुहैया करा सकता है। क्या हम व्यापक रूप से सुधरा हुआ निवेश एवं नियामकीय परिवेश मुहैया कराने के लिए जरूरी कदम उठाने को तैयार हैं ताकि इस बड़े बदलाव को मूर्तरूप दिया जा सके? यह उसके साझेदार देशों के लिए भी बढिय़ा रहेगा क्योंकि इससे उन्हें चीन की अर्थव्यवस्था के दबदबे में रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। अतिरिक्त लाभ यह होगा कि खुद चीन भी पीछे नहीं रहना चाहेगा।

जैसे ही भारतीय प्रगति का आख्यान बदलना शुरू होगा, विदेश नीति संबंधी उसके विकल्प भी बढ़ते जाएंगे। वर्ष 2003-07 के दौर में भी हम ऐसा होता हुआ देख चुके हैं। उस समय भारत को चीन के करीब पहुंचते और उसे पार करते हुए देखा जा रहा था। उस समय हमें अमेरिका और चीन दोनों के साथ विदेश नीति के मोर्चे पर दो बड़ी कामयाबियां मिली थीं। उसका नतीजा यह हुआ था कि हमारे पड़ोस, दक्षिण-पूर्व एशिया और यूरोप में भी हमारी सामरिक हैसियत बढ़ी थी। हमें एक बार फिर वह हैसियत पाने की जरूरत है लेकिन उसके लिए हमें प्रभावी विदेश नीति की बड़ी बाधा मानी जाने वाली संस्थागत एवं मानव संसाधन सीमाओं से पार पाना होगा। अपनी आकांक्षाओं और क्षमताओं के बीच फासला बढऩा अब हम और बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। उम्मीद है कि 2018 एक ऐसा साल होगा जब भारतीय विदेश नीति में दिखावा कम और व्यवस्थागत बदलाव अधिक होंगे। बिना किसी मकसद वाला आडंबर उपहास को ही न्योता देता है। अगर हम अपनी प्रतिबद्धता पूरी कर पाते हैं तभी एक महान ताकत के रूप में हमारी विश्वसनीयता बन पाएगी।

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