टी. एन. नाइनन

हमारे देश में निजीकरण बाजार के स्तर पर होता है, न कि उद्यमों के स्तर पर। हिंदुस्तान जिंक और अब बंद हो चुकी मॉडर्न फूड जैसी बहुत कम कंपनियों का निजीकरण हुआ है। इसके विपरीत कई बाजारों के द्वार खुलने के बाद निजी क्षेत्र ने उन पर कब्जा करने में सफलता पाई है। उसने हमेशा यह सफलता सरकारी क्षेत्र के पुराने खिलाडिय़ों पर श्रेष्ठïता साबित करके हासिल की है। यह बदलाव कई क्षेत्रों में देखने को मिला है। विमानन, दूरसंचार, औषधि और शिक्षा क्षेत्र इसके उदाहरण हैं। उपभोक्ताओं को भी हमेशा इससे लाभ ही हुआ है क्योंकि उन्हें उत्पाद और सेवाओं के विकल्प मिले हैं।

कंपनियों के बजाय बाजार का निजीकरण करने की इस कवायद की कीमत भी चुकानी पड़ रही है। भारत अभी भी एक नरम शक्ति वाला देश है और सरकार अब तक सरकारी उपक्रमों को बाजार में अपने दम पर कारोबार करने और बिकने या खत्म होने देने के लिए तैयार नहीं है। इसके बजाय हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स जैसी कंपनियों की तरह वह इनका परिचालन कर रही है, हालांकि उसे राजस्व से पांच गुना तक नुकसान उठाना पड़ रहा है। इन दिनों एयर इंडिया का मामला सुर्खियों में है। एयर इंडिया की तरह दूरसंचार क्षेत्र की भारत संचार निगम और महानगर टेलीफोन निगम को भी काफी समय तक भारी घाटे के के साथ चलाया गया। इनमें भारी पूंजी निवेश किया गया। इन तीनों कंपनियों का सालाना घाटा 11,600 करोड़ रुपये तक रहा है।

बदलते हुए बाजारों और नाकाम संस्थानों के बीच जरा बैंकों के भविष्य पर विचार कीजिए। यह मानना सुरक्षित कहलाएगा कि निजी बैंकों को बड़ी हिस्सेदारी मिलेगी जो मौजूदा 30 फीसदी से अधिक होगी। पांच या उससे अधिक सालों में वे इसे 50 फीसदी से ऊपर ले जा पाएंगे या नहीं, यह देखना होगा। मुद्दा यह है कि धीरे-धीरे बैंकों के बेहतरीन ग्राहक उनसे दूर होते जाएंगे। इस बीच वे नई तकनीक अपनाएंगे और ऋण के जोखिम के आकलन के नए-नए तरीके तलाश करेंगे। इससे उनके वित्तीय नतीजे बेहतर होंगे। ऐसे परिणामों से शेयर बाजार में उच्च मूल्यांकन हासिल होगा। गौरतलब है कि अभी बाजार पूंजीकरण के मामले में शीर्ष नौ में से आठ बैंक निजी क्षेत्र के हैं। यानी उनकी पहुंच सस्ती पूंजी तक है। पूंजी की जद्दोजहद वाले बाजार में यह प्रतिस्पर्धी बढ़त है। अगर कुछ सरकारी बैंकों की हालत कल एयर इंडिया या एमटीएनएल जैसी हो जाए तो? यानी वे ऐसे उपक्रम बन जाएं जिनका बाजार समाप्त हो चुका हो, उनको पूंजी की आवश्यकता हो और वे बेहतर प्रतिस्पर्धा के लायक न रह गए हों तथा पुराने पड़ रहे हों, कर्मचारी श्रम संगठनों से जुड़े हों और आधुनिक तकनीक से दूर हों और सेवा को लेकर उनका रुख सही न हो तो क्या होगा? लोग निजीकरण की बात कर रहे हैं लेकिन वह बहुत दूर की कौड़ी है। अगर स्टेट बैंक के अलावा किसी बैंक की बिक्री होती है तो उसकी कीमत बहुत मामूली होगी और कोई सरकार ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकेगी। यहां इस सवाल पर विचार करना आवश्यक है कि तब क्या? इन बैकों को नई पूंजी की आवश्यकता होगी जो करदाताओं से आएगी।

करदाताओं पर पहले ही काफी बोझ है और यह नया बोझ एयर इंडिया के बोझ से कई गुना ज्यादा हो सकता है। निश्चित तौर पर यह बोझ पहले ही काफी ज्यादा है और एयर इंडिया पर भी मामूली कर्ज नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में लोग दूर हो रहे हैं लेकिन फिर भी सरकारी शिक्षण संस्थान चालू हैं। यहां भी निजी संस्थानों ने धीरे-धीरे सरकारी संस्थानों पर बढ़त हासिल कर ली है। मुंबई में नगर निकाय द्वारा संचालित दर्जनों विद्यालय बंद हो गए क्योंकि उनके यहां छात्र ही नहीं आते। लेकिन क्या उन शिक्षकों को हटाया जा सकता है? दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में प्रति छात्र लागत बढ़कर 6,000 रुपये मासिक हो चुकी है। ऐसा इसलिए क्योंकि कम छात्र होने से भी लागत बढ़ती है। यह लागत कई बेहतर निजी विद्यालयों की लागत के समान है और आगे जैसे-जैसे छात्र सरकारी विद्यालय छोड़ेंगे यह लागत और बढ़ेगी। ऐसे में जोखिम यह है कि एक और ऐसा क्षेत्र विकसित हो जाए जहां पैसा तो सरकार का लगता हो लेकिन ग्राहक कहीं और हों। संक्षेप में कहें तो बाजार के निजीकरण की नीति एक उद्देश्य की पूर्ति करती है। वहां ग्राहक को फायदा पहुंचता है। सरकारी उपक्रमों में बजट संबंधी दिक्कतों से जुड़ी बातों को समझना होगा। साथ ही अगर वे बेहतर प्रदर्शन नहीं करेंगे तो उनका बंद होना या बिक जाना ही उचित है। अगर ऐसा नहीं होता है तो करदाताओं को इसकी कीमत चुकानी होगी।

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