*आभार_स्वर्ण सिंह, प्रोफेसर, जेएनयू*
आज से भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों की 20वें चक्र की दो दिवसीय वार्ता नई दिल्ली में शुरू हो रही है। इस बातचीत में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के स्टेट कौंसिलर यांग जीची शिरकत करेंगे। साल 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चीन दौरे के वक्त यह तंत्र अस्तित्व में आया था। उस समय दोनों देशों के बीच सीमा संबंधी सवालों पर बातचीत की जिम्मेदारी आधिकारिक स्तर के एक साझा कार्यबल से निकलकर दोनों देशों के नेतृत्व के ‘विश्वासपात्रों’ के हाथों में आ गई और इन्हें सीमा संबंधी विवाद सुलझाने की ‘राजनीतिक संभावना’ तलाशने का दायित्व दिया गया।

बहरहाल, 1981 से जारी पूर्ववर्ती व्यवस्था की तरह ही यह फोरम भी एक और सामान्य तंत्र बनकर रह गया, जिसके पास सीमा संबंधी करारों के नाम पर दिखाने को कुछ भी नहीं है। हालांकि इसने इस मायने में कुछ प्रतिष्ठा जरूर अर्जित की है कि इसमें दोनों देशों के सभी मुद्दों पर बातचीत की जा सकती है। सरहदी इलाकों में शांति बनाए रखने में इसकी खास भूमिका रही है। इसलिए, इस बैठक से सीमा विवाद के मामले में किसी ठोस नतीजे की उम्मीद भले न की जाए, मगर इसमें कुछ क्षेत्रीय व वैश्विक मुद्दों, जैसे उत्तर कोरिया से लेकर जलवायु परिवर्तन तक पर कुछ प्रतीकात्मक सुखद मुद्राएं अपनाई जाएंगी। यह बैठक एनएसजी में भारत की सदस्यता के दावे या सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के सवाल पर चीन के रवैये में परिवर्तन और उसके बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) पर भारतीय रुख में कुछ सूक्ष्म बदलावों का शो-केस भी बन सकती है।

इस बैठक से सकारात्मक उम्मीद दरअसल पिछले महीने दोनों देशों के सीमा संबंधी तंत्र की सफल बैठक से पैदा हुई है, जिसके बाद 11 दिसंबर को नई दिल्ली में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की सुषमा स्वराज और डोभाल से मुलाकात हुई थी। जहां तक विशेष प्रतिनिधियों की बात है, तो दोनों देशों ने साल 2005 में सामान्य मार्गदर्शक सिद्धांतों व राजनीतिक मानदंडों से संबंधित एक समझौते पर दस्तखत किया था और 2008 में तो एक ‘फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ की रूपरेखा भी लगभग तय कर ली थी। लेकिन उसके बाद से यह ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है। यहां तक कि 2005 के समझौते में जो समझदारी बनी थी कि दोनों देश ‘सरहदी इलाके में बसी आबादी के हितों का संरक्षण करेंगे, चीन वहां लगातार बखेड़ा करता रहा है।’ फिर भी दोनों देश के ‘विशेष प्रतिनिधि’ 15 वर्षों के भीतर 20वें चक्र की बातचीत करने जा रहे हैं। गौरतलब बात यह है कि ये विशेष प्रतिनिधि अपने-अपने देश के संकटमोचक बनकर उभरे हैं। दोनों मुल्कों की तरफ से जो-जो व्यक्ति इस हैसियत में आए, उनके निजी तालमेल ने इस तंत्र को मजबूती दी है। उदाहरण के तौर पर, चीनी मीडिया के तमाम विषवमन के बावजूद डोका ला में कायम गतिरोध को दूर करने का श्रेय 28 जुलाई को बीजिंग में दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधियों की मुलाकात को ही जाता है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह तरीका व तंत्र आगे भी कारगर साबित होता रहेगा। आखिर दोनों देशों के आर्थिक, राजनीतिक व रणनीतिक परिदृश्यों में तेजी से बढ़ते असंतुलन से भारतीय प्रतिनिधि को दो-चार होना पड़ रहा है।

चीन की कूटनीति ‘यूरेशिया के पुनर्जीवन’ से निर्देशित है। पिछले हफ्ते अपने भारत दौरे से पहले बीजिंग में बोलते हुए वांग यी ने डोका ला पर 28 अगस्त को गतिरोध टूटने का चीनी संस्करण प्रस्तुत किया। बीजिंग और नई दिल्ली की ‘गंभीरता’ की सराहना करते हुए उन्होंने कहा कि ‘कैसे दोनों देशों ने चीन के डोका ला इलाके में भारतीय फौजी टुकड़ी के घुस आने का मसला सुलझाया… भारत ने अपनी फौज और हथियार वापस अपनी सीमा में ले लिया’। यह कहानी वही नहीं है, जैसा भारत पेश करता है। अलबत्ता, वांग ने कहा कि चीन व भारत ‘मतभेदों से बहुत अधिक रणनीतिक हितों की साझेदारी करते हैं’। यह इस पुराने नजरिये से अलग है कि भारत व चीन के पास आगे बढ़ने के लिए दुनिया में पर्याप्त जगह है। यह नया नजरिया इस बात पर भी बल देता है कि बीआरआई में भारत के लिए उपलब्ध संभावनाओं का लाभ उठाने के लिए उसे सही विकल्प चुनना चाहिए। लेकिन क्या भारत भी ऐसा ही सोचता हैं
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