(राजीव रंजन झा)

तेल की कीमतें बढ़ने की वजह से एक प्रमुख आशंका यह भी बनती है कि इसके चलते देश में महंगाई दर कहीं बेतहाशा न बढ़ जाए। मगर इस मोर्चे पर भी अर्थशास्त्रियों में अनावश्यक घबराहट नहीं दिखती। वे इन आंकड़ों का हवाला देते हैं कि पिछले साल जून से अब तक कच्चे तेल की कीमत में 20-22 डॉलर की वृद्धि हो जाने के बावजूद देश में खुदरा महंगाई दर (सीपीआइ) में केवल करीब 0.2 प्रतिशत अंक की ही वृद्धि हुई है। हालांकि आरबीआइ का आकलन है कि कच्चे तेल की कीमत में 10 डॉलर की हर वृद्धि से देश में महंगाई दर 0.3 प्रतिशत अंक बढ़ जाती है। हालांकि इसे आरबीआइ के अतिरिक्त सावधानी वाले नजरिये से जोड़ कर भी देखा जा सकता है। पिछले तीन-चार वर्षो के दौरान महंगाई दर 4 प्रतिशत से करीब 5.5 प्रतिशत तक के दायरे में रही है। आरबीआइ के मौजूदा अनुमानों के मुताबिक इस वित्त वर्ष की पहली छमाही में महंगाई दर 4.7-5.1 प्रतिशत के दायरे में रह सकती है। हालांकि दूसरी छमाही में महंगाई दर घटने की ही आशा है और मार्च 2019 के लिए आरबीआइ और ज्यादातर आर्थिक विश्लेषकों के अनुमान 4.5 प्रतिशत या इसके आस-पास ही हैं। अगर कच्चे तेल की कीमत में यहां से और तेज उछाल आती है तो भी महंगाई दर मार्च तक 5 प्रतिशत के आस-पास पहुंचने के ही अनुमान जताए गए हैं। यह असर इस बात पर ज्यादा निर्भर करेगा कि कच्चा तेल ऊपरी स्तरों पर कितनी देर तक रहता है और उन ऊपरी स्तरों को छूने के बाद कितनी जल्दी नीचे आ जाता है।
हाल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव अचानक काफी तेज हो गए। तेल का एक बड़ा आयातक देश होने के चलते इसकी कीमतें बढ़ने से भारत के लिए चिंताएं बढ़ने लगती हैं। न केवल देश का व्यापार घाटा और उसके चलते चालू खाते का घाटा (करेंट एकाउंट डेफिसिट या सीएडी) बढ़ जाता है, बल्कि इसके चलते रुपये में भी कमजोरी आती है। पिछले साल भर में अगर कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें करीब 50 डॉलर से बढ़ कर 80 डॉलर के आस-पास आ गई हैं तो इस साल जनवरी से अब तक डॉलर-रुपये की विनिमय दर जनवरी के करीब 63.3-63.6 रुपये के आस-पास से बढ़ कर हाल में 68.65 रुपये तक हो गई।

हालांकि रुपये की कमजोरी के पीछे एक पहलू यह भी है कि डॉलर में अन्य देशों की मुद्राओं के सापेक्ष भी मजबूती आई है। इसके अलावा अमेरिका में बांडों पर कमाई (यील्ड) बढ़ने के चलते विदेशी निवेशकों के लिए खुद अमेरिकी बाजार ज्यादा आकर्षक हो गया है। वहीं भारतीय शेयर बाजार ऊंचे स्तर पर होने के कारण यहां शेयरों का मूल्यांकन उन्हें महंगा लगने लगा है। इसके चलते विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) भारतीय शेयर बाजार में लगातार बिकवाली करके वह पैसा वापस ले जा रहे हैं। जब वे पैसा वापस ले जाते हैं तो भारत से डॉलर बाहर जाते हैं, जिसके चलते रुपया कमजोर होता है।

जहां तक कच्चे तेल की कीमतों की बात है, साल 2014 के बाद पहली बार कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल के ऊपर चली गई। हालांकि अब भी यह साल 2013 में दिखे 120 डॉलर के ऊंचे भाव से काफी दूर है, लेकिन 2015 और 2016 के निचले स्तरों से इसमें काफी बढ़ोतरी हो चुकी है। जनवरी 2016 में तो कच्चे तेल के भाव कुछ समय के लिए 30 डॉलर प्रति बैरल के भी नीचे चले गए थे, हालांकि उन स्तरों से यह तेजी से ऊपर भी आया था। मोटे तौर पर कहा जाए तो साल 2015 की दूसरी छमाही से लेकर 2017 की दूसरी छमाही तक यह मोटे तौर पर 40 से 60 डॉलर के दायरे में बना रहा। साल 2017 के अंतिम महीनों में यह 60 डॉलर के ऊपर निकला और हाल में 80 डॉलर तक चढ़ गया। मगर इन पंक्तियों के लिखने के समय तक यह फिर से कुछ नरम हुआ है और 75 डॉलर के पास आ गया है।

महंगे तेल का असर:- अब जरा देखें कि कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव का क्या असर भारत पर हुआ? देश में कच्चे तेल का आयात वित्त-वर्ष 2012-13 में 144.5 अरब डॉलर का था, जो कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के साथ-साथ 2015-16 तक घटते-घटते 65.9 अरब डॉलर का रह गया था। मगर उसके बाद यह फिर से बढ़ने लगा और 2017-18 में यह 87.4 अरब डॉलर का रहा है। एक मोटा आकलन यह है कि कच्चे तेल की कीमतें अगर 10 डॉलर बढ़ती हैं तो भारत के सालाना आयात बिल में 8 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हो जाती है। आयात की राशि बढ़ने से देश का व्यापार घाटा (ट्रेड डेफिसिट) बढ़ता है। व्यापार घाटा बढ़ने का सीधा मतलब होता है चालू खाते का घाटा (करेंट एकाउंट डेफिसिट या सीएडी) बढ़ जाना, क्योंकि व्यापार घाटा इसका सबसे बड़ा घटक है। यही कारण है कि अर्थव्यवस्था के जानकारों ने इस साल चालू खाते का घाटा 1.9 प्रतिशत से बढ़ कर करीब 2.5 प्रतिशत हो जाने का अंदेशा जताना शुरू कर दिया है।

कितने गंभीर हैं हालात1क्या मौजूदा हालात साल 2013 जैसे खराब हो गए हैं? ऐसा नहीं लगता। उस समय चालू खाते का घाटा 6 प्रतिशत के ऊपर चल रहा था। दूसरी ओर विकास दर एकदम सुस्त हो गई थी। इसलिए रुपये की कमजोरी घरेलू वजहों से कम, वैश्विक कारणों से ज्यादा है, पर इतना जरूर है कि अगर रुपये की कमजोरी बनी रही तो इसके चलते अर्थव्यवस्था पर दबाव बनेगा।

इस समय देश में पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतें बढ़ना लोगों के असंतोष का एक बड़ा कारण बना हुआ है। पहली नजर में जनता की यह नाराजगी ठीक लगती है कि जब कच्चे तेल के भाव घट रहे थे, तब सरकार ने इसका लाभ जनता को नहीं दिया और खुदरा कीमतें उतनी नहीं घटने दी। इसके बदले सरकार ने तब उत्पाद (एक्साइज) शुल्क बढ़ा कर अपना खजाना भरने को प्राथमिकता दी। इस समय जब कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रही हैं तो उसका बोझ जनता पर डाला जा रहा है और खुदरा कीमतें बढ़ाई जा रही हैं। अगर सरकार जनता को समझाना भी चाहे कि उत्पाद शुल्क बढ़ा कर उसने राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) नियंत्रित किया, सब्सिडी घटाई और ईरान से तेल खरीद की पुरानी उधारी चुकाई तो ये सब बातें जनता नहीं समझने वाली है। इनसे अर्थशास्त्रियों और रेटिंग एजेंसियों की वाहवाही मिल सकती है, जनता का समर्थन नहीं मिलने वाला! लिहाजा इस मुद्दे की राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार को कुछ ऐसा रास्ता निकालना ही होगा, जिसमें वह जनता को राहत देते हुए भी अर्थशास्त्र के नजरिये से कोई बड़ी गलती न करे।

कीमत वृद्धि का सिलसिला1यहां एक बड़ा सवाल यह है कि क्या कच्चे तेल की कीमतें इसी तरह ऊंची बनी रहेंगी या इससे भी आगे जाकर 100 डॉलर के आसपास पहुंच जाएंगी? काफी जानकार ऐसे अंदेशे जता रहे हैं, पर दूसरी ओर यह मानने वालों की भी कमी नहीं है जो इसमें मौजूदा उछाल को एक तात्कालिक झटका मान रहे हैं। उनके हिसाब से लंबी अवधि में कच्चे तेल की कीमतें फिर से 65-70 डॉलर के औसत पर आ जाएंगी। कारण यह है कि 80 डॉलर जैसी ऊंची कीमत पर कच्चे तेल का भाव टिके रहना मुश्किल है। जैसे ही तेल की कीमतें 60-65 डॉलर के ऊपर जाती हैं, अमेरिका में शेल गैस यानी चट्टानों के बीच से निकाली जाने वाली गैस के उत्पादकों के लिए भाव अनुकूल हो जाते हैं और वे अपना उत्पादन बढ़ाने लगते हैं। इसलिए जानकारों के मुताबिक महत्वपूर्ण यह नहीं है कि अचानक किसी उछाल में कच्चे तेल का भाव ऊपर कहां तक चला जाता है, बल्कि वे इस बात को महत्व देंगे कि भाव आखिरकार किस दायरे में ठहरता है। अगर भाव फिर से निचले दायरे में ठहर जाते हैं तो सरकार को इस मुसीबत से काफी हद तक अपने-आप निजात मिल जाएगी, लेकिन सरकार इस उम्मीद में हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकती। उसे दूसरी संभावनाओं को ध्यान में रख कर अपनी तैयारी करनी ही होगी।

कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का एक कारण यह है कि तेल-उत्पादक देशों द्वारा उत्पादन में कटौती कर दी गई है। इसके अलावा अमेरिका और ईरान के बीच तनाव बढ़ा है और अमेरिका ने ईरान पर व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए हैं। इसके चलते भी तेल की आपूर्ति घटी है। भारत ईरान से काफी तेल आयात करता है, इसलिए अमेरिकी प्रतिबंध की काट नहीं मिलने पर भारत के लिए मुश्किल बढ़ेगी। मगर यह इस पर निर्भर करता है कि भारत अमेरिकी प्रतिबंध को कितना तवज्जो देता है। पहले भी ऐसे मौके आए हैं, जब भारत ने अमेरिका और ईरान के आपसी तनाव से खुद को दूर रख ईरान से व्यापार जारी रखा है। पहले भी भारत ईरान से रुपये में भुगतान करके तेल आयात करता रहा है। सरकार को यह देखना होगा कि कैसे वह वैकल्पिक तरीकों से ईरान से आने वाली आपूर्ति को जारी रखे। अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते यह भी हो सकता है कि ईरान भारत को कुछ छूट पर ही अपना तेल बेचने को तैयार हो जाए।1रुपये को संभालने के उपाय

अगर भारतीय मुद्रा में ईरान से रुपये में तेल खरीदने की व्यवस्था फिर से बन पाती है तो इससे डॉलर के मुकाबले रुपये की स्थिति को संभालने में मदद मिलेगी। अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से ईरान भारत से वस्तुओं के आयात के बदले तेल देने के लिए भी तैयार हो सकता है। वेनेजुएला ने भी भारत को रुपये में तेल की बिक्री करने पर राजी होने के संकेत दिए हैं। अगर भारत सरकार इस तरह के कूटनीतिक उपायों में सफल रहती है तो इससे चालू खाते के घाटे में भी उतनी वृद्धि नहीं होगी, जितनी अभी आशंका लग रही है। साथ ही इन कदमों से डॉलर की तुलना में रुपये में आ रही कमजोरी भी थमेगी।

हालांकि रुपये की विनिमय दर बढ़ने के चलते भी महंगाई और आर्थिक वृद्धि दर पर कुछ असर होगा। सबसे पहले तो आयात की जाने वाली तमाम चीजें महंगी हो जाएंगी। अपने पूंजीगत विस्तार के लिए आयात पर निर्भर रहने वाले उद्योगों के लिए नई उत्पादन क्षमता स्थापित करना महंगा हो जाएगा। जिन कंपनियों ने विदेशी मुद्रा में ऋण (एफसीबी) ले रखे हैं, उनके लिए भी ब्याज का बोझ बढ़ जाएगा। ऐसा काफी ऋण सरकारी कंपनियों ने बुनियादी ढांचा निर्माण के लिए भी लिया है, और इसके चलते बुनियादी ढांचा बनाने की लागत बढ़ जाएगी। जिन सरकारी कंपनियों के एफसीबी के लिए सरकार ने सार्वभौम गारंटी दे रखी है, उनके लिए प्रभावी ब्याज दर बढ़ने की सूरत में सरकारी घाटे पर भी असर पड़ेगा।

पर रुपये की विनिमय दर पर जहां वैश्विक बाजार का बड़ा असर होता है, वहीं सरकार और आरबीआइ की सोच और रणनीति भी इसे प्रभावित करती है। मनमोहन सिंह की सरकार के समय डॉलर-रुपये की विनिमय दर को फरवरी 2013 में करीब 53 रुपये के स्तर से अगस्त 2013 में करीब 69 रुपये तक जाने दिया गया। यानी केवल छह-सात महीनों में रुपये का लगभग 30 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया गया था, अवमूल्यन की कोई औपचारिक घोषणा किए बिना। भाजपा सरकार के रुझान को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि वह रुपये को ज्यादा कमजोर होने देने के पक्ष में रहेगी। इसलिए मोटे तौर पर यह संभावना ज्यादा लगती है कि डॉलर-रुपये की विनिमय दर कभी-कभार की अचानक उछाल के अलावा सामान्य तौर पर 65-68 के दायरे में बनी रहे।(साभार दैनिक जागरण )

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