वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐसा बजट पेश किया है जो हर तरह से अच्छा प्रतीत होता है लेकिन राजकोषीय गणित को ठीक से समझने के लिए इसे थोड़ा गहराई से पढऩा होगा। तभी आर्थिक वृद्घि पर इसके प्रभाव का भी आकलन हो पाएगा। सरकार के ऋण कार्यक्रम को लेकर बॉन्ड बाजार की प्रतिक्रिया पर खास ध्यान देना होगा। उच्च ब्याज दर व्यवस्था अगर फलीभूत होती है तो इसमें आर्थिक सुधार की गति धीमी होने का जोखिम भी होता है। बदलावों की बात करें तो वित्त मंत्री ने व्यक्तिगत आय पर कर के मामले में चरणबद्घ सुधार का सिलसिला जारी रखा है। कॉर्पोरेट कर ढांचे में ऐसा बदलाव किया गया है जो छोटे और मझोले उद्यमों के लिए फायदेमंद साबित होगा। उन्होंने शेयरों और इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश के रूप में लंबी अवधि के पूंजीगत लाभ पर कर लगाकर अच्छा कदम उठाया है। कर बढ़ाने पर यह ध्यान स्वागतयोग्य है क्योंकि वृद्घि के लाभ में असमानता बढ़ती जा रही है।

सबसे अहम कर बदलाव वे नहीं हैं जिन पर वित्त मंत्री ने अच्छा-खासा समय दिया बल्कि वे हैं जिन पर उन्होंने चलताऊ अंदाज में टिप्पणियां कीं। खपत वाली वस्तुओं की तमाम श्रेणियों पर लगने वाले सीमा शुल्क में महत्त्वपूर्ण इजाफा किया गया है। जबकि इसका असर सीमा शुल्क राजस्व के अनुमानों में नजर नहीं आता। चाहे जो भी हो उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढऩे तय हैं। इससे उद्योग आधारित संरक्षणवाद को लेकर चिंता बढ़ेगी। हालांकि यह भी सच है कि कुल वस्तुओं के आयात में सीमा शुल्क राजस्व की हिस्सेदारी बमुश्किल 4 फीसदी है। शायद इसके पीछे इरादा ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को बढ़ावा देने का है।

व्यय के मोर्चे पर जेटली ने भौतिक बुनियादी ढांचे, मूलत: परिवहन पर निवेश को बढ़ावा दिया है। अगले वर्ष आम चुनाव को देखते हुए उन्होंने स्वास्थ्य बीमा को लेकर एक ऐसी योजना की घोषणा की है जो मौजूदा सरकार की पहचान बन सकती है। देश की 40 फीसदी आबादी इस योजना के दायरे में आएगी। राजकोषीय घाटे के तय लक्ष्य से विचलन को इस तरह स्पष्टï किया गया है कि एक ओर जहां अन्य लाभ-हानि एक दूसरे को समायोजित कर देते हैं वहीं वस्तु एवं सेवा कर का एक महीने का राजस्व पूरी तरह गंवा दिया गया क्योंकि भुगतान की समय-सारणी में बदलाव आया है। उत्पाद शुल्क और सेवा कर से इतर गत जुलाई में लागू वस्तु एवं सेवा कर का भुगतान समान माह के बजाय अगले माह किया जाता है।

जेटली ने सही कहा है कि करदाताओं की तादाद में और खुद कर संग्रह में उछाल आई है। इससे कर जीडीपी अनुपात 12.1 फीसदी के साथ अब तक के उच्चतम स्तर पर आ गया है। पिछली सरकार के अंतिम बजट में यह 10.1 फीसदी था। अगर वर्ष 2016-17 को आधार वर्ष मानते हुए अगले बजट अनुमान (चालू वर्ष उथलपुथल भरा रहा) पर ध्यान दिया जाए तो ढाई साल की अवधि में प्रत्यक्ष कर राजस्व के 28 फीसदी की दर से बढऩे का अनुमान है और अप्रत्यक्ष कर के 29.5 फीसदी की दर से। यह 14 फीसदी की सालाना वृद्घि के बराबर है जो उल्लेखनीय है। वित्त मंत्री कुछ गलतियों के बाद जीएसटी के सफल क्रियान्वयन पर भी नजर डाल सकते हैं।

विस्तृत आंकड़े सवाल अवश्य खड़े करते हैं। स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम की लागत 25,000 करोड़ रुपये या उससे अधिक हो सकती है। फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट एकदम पहले जैसा ही है। इस वर्ष राजकोषीय घाटे के स्तर को नकदी कम करने की वजह से मदद मिली है। अगर उसे राजकोषीय गणित में शामिल कर दिया जाए तो घाटा बढ़कर 3.7 फीसदी नजर आने लगेगा। अगले वर्ष के बजट में व्यापक नकदी का संग्रहण नजर आता है। अगर उसे ध्यान में रखा जाए तो वर्ष 2018-19 का राजकोषीय घाटा केवल 3.1 फीसदी रहेगा जबकि घोषणा 3.3 फीसदी की है। दोनों वर्षों को मिलाकर देखें तो 3.4 फीसदी का औसत राजकोषीय घाटा नजर आएगा। हालांकि सरकार अब उस राजकोषीय राह को त्याग चुकी है जिसके तहत यह लक्ष्य तय किया गया था।

ऐसा तब है जब बड़े और अहम व्यय मसलन स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास और शहरी विकास पर एक तरह से रोक है। रक्षा समेत इनका आवंटन बहुत कम बढ़ाया गया है। मोदी सरकार की प्राथमिकता बड़े बुनियादी व्यय मसलन राजमार्ग और रेलवे हैं। इनमें बड़े निवेश की आवश्यकता है लेकिन इसकी कीमत अन्य मदों को चुकानी पड़ती है। व्यय पर रोक के बावजूद अगले वर्ष के बजट उधार ने बॉन्ड बाजार को सहारा दिया। ब्याज दरें एक साल पहले की तुलना में एक फीसदी अधिक हैं। यह रिजर्व बैंक के संकेतों से उलट है। प्रश्न यह है कि क्या आरबीआई नीतिगत दरों में इजाफा करना शुरू करेगा। वित्त मंत्री ने संकेत दिया कि मुद्रास्फीति का बढ़ता दबाव और खरीफ फसल के उच्च मूल्य की संभावना इसे बढ़ावा दे सकती है। बढ़ती ब्याज दरों के बीच आर्थिक स्थिति में पूर्ण सुधार हासिल कर पाना मुश्किल है।

क्रियान्वयन को लेकर कुछ प्रश्न हैं जो आगे स्पष्ट हो जाएंगे। देखना होगा कि स्वास्थ्य बीमा योजना के 50 करोड़ लाभार्थी कैसे चुने जाते हैं। यह भी देखना होगा कि निजी अस्पतालों के खराब रिकॉर्ड को देखते हुए सरकार गड़बडिय़ां कैसे रोकेगी? सरकार अगर ज्यादा सरकारी अस्पताल बनाने में निवेश करती तो बेहतर होता क्योंकि मौजूदा अस्पतालों में पहले ही मरीजों की भीड़ हद से ज्यादा है।

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