(गुरचरण दास)
(दैनिक भास्कर से साभार )

अरविंद सुब्रह्मण्यम ने मुख्य आर्थिक सलाहकार पद से विदा होते हुए जो कहा उससे हमारी शब्दावली में एक नया जुमला आ गया ‘कलंकित पूंजीवाद’। इससे उनका आशय यह था कि मुक्त बाजारों को अभी भी भारत में सुविधाजनक जगह नहीं मिली है। समस्या और भी गहरी है। कई भारतीयों ने बिना सोचे-समझे पश्चिम में उपजी सनक की तर्ज पर आर्थिक वृद्धि पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं। हम शायद भूल गए हैं कि उच्च वृद्धि से ही कोई गरीब देश धनी बनने की उम्मीद रख सकता है। वृद्धि पर संदेह रखना सही हो सकता है, जब आपकी प्रतिव्यक्ति आय 40,000 डॉलर (28.30 लाख रु.) हो पर तब नहीं जब यह 2,000 डॉलर (1.41 लाख रु.) से भी कम हो। यूपीए-2 की नाकामी का आंशिक कारण यह भी था कि उसने वृद्धि की जगह समानता को अपना लिया। लेकिन, मोदी भी तो अब तक ‘अच्छे दिन’ नहीं दे पाए हैं, क्योंकि उन्होंने नौकरियां पैदा करने और वृद्धि पूरा ध्यान नहीं लगाया।
वर्ष 2010 की शुरुआत में एक टीवी कार्यक्रम के दौरान मैं खुशी जता रहा था कि भारत की जीडीपी वृद्धि पूर्ववर्ती तिमाही में 10 फीसदी की दर पार कर गई। मैंने कहा कि इसका खास महत्व यह है कि दर लगातार 8 फीसदी की अप्रत्याशित दर से करीब एक दशक तक बढ़ती रही। अंतत: भारत 1991 के आर्थिक सुधारों की फसल काट रहा था और यदि इसी दर पर दो और दशकों तक चलता रहता तो भारत सम्माननीय मध्यवर्गीय देश बन जाता। मुझे तब आश्चर्य हुआ जब अन्य पैनलिस्ट मुझ पर टूट पड़े। पहले ने इसे ‘जॉबलेस ग्रोथ’ कहकर खारिज कर दिया। दूसरे ने मुझे ‘समावेशी वृद्धि’ की जरूरत पर शिक्षा दी। कोई भी देश साल दर साल ऐसी वृद्धि दर के लिए तड़पेगा और यहां दो सम्मानीय राजनेता थे, जिन्हें इस पर खेद था। सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के दिनों में वृद्धि को लेकर संदेहवाद चरम पर था। नतीजतन सरकार ने वृद्धि से अपना ध्यान हटाकर मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और गरीबों को खैरात बांटने पर लगा दिया। इसी वजह से कुख्यात ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ की स्थिति पैदा हुई। अचरज नहीं कि आर्थिक वृद्धि 2011 के बाद गोता खा गई और मोदी को विकास के वादे के सहारे सत्ता में आने में मदद मिली। सात साल बाद भी अर्थव्यवस्था 2011 के पूर्व की रफ्तार नहीं पकड़ सकी है और मोदी ने भी वादा पूरा नहीं किया।
धनी देशों में जीडीपी वृद्धि पर सवाल उठाना समझ में आता है, जहां हाल के दशकों में आर्थिक वृद्धि के फायदों का समान बंटवारा नहीं हुआ। मानव इतिहास में गंभीर आर्थिक वृद्धि 1800 के करीब औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुई। ब्रिटेन इसे अनुभव करने वाला पहला देश था और वह तब से निरंतर वृद्धि करता रहा है। वास्तविक संदर्भों में वहां का औसत वर्कर 1800 में जो कमाता था, वह अब 12 गुना ज्यादा कमाता है। पिछले दो सौ वर्षों में दुनिया के औसत जीवन-स्तर में अविश्वसनीय तरक्की हुई है। वर्ष 1 से 1800 तक प्रतिव्यक्ति औसत विश्व जीडीपी 200 डॉलर (14 हजार रु.) से नीचे स्थिर रहा लेकिन, 2000 आते-आते यह बढ़कर 6,539 डॉलर (4.63 लाख रु.) तक पहुंच गया। जीवन-स्तर में यह वृद्धि अपूर्व आर्थिक वृद्धि का नतीजा था। स्वतंत्रता के बाद भारत की वृद्धि भी तुलनात्मक आधार पर 1950 के 71 डॉलर (5020 रु.) प्रति व्यक्ति से बढ़कर 2018 में 1975 डॉलर (1.40 लाख रु.) प्रतिवर्ष हो गई। चीन में तो यह और भी नाटकीय रहा। अपनी किताब ‘द ग्रोथ डेल्यूज़न’ में जीडीपी की अवधारणा पर सवाल उठाने वाले डेविड पाइलिंग स्वीकार करते हैं, ‘यदि आप गरीब हैं तो आर्थिक वृद्धि रूपांतरण लाने वाली हो सकती है।’
मैं वृद्धि पर संदेह करने वालों से पूछता हूं कि क्या दुनिया में औसत जीवन-स्तर में असाधारण वृद्धि इतनी बुरी चीज है? इस अवधारणा की स्वाभाविक सीमाएं हैं। जीडीपी से आय का वितरण, सरकारी सेवाएं, साफ हवा, जीवन निर्वाह में लगे किसान का काम नहीं दिखता और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में लगे लोग नहीं दिखते, जो दुनिया की आबादी के एक-चौथाई के बराबर हैं। न इसमें ज्यादातर महिलाओं द्वारा घर में किया जाने वाला काम शामिल होता है। यदि अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और बड़ी संख्या में लोगों को फायदा नहीं होता, तो यह पूछना जायज होगा कि यह जीडीपी वृद्धि किसलिए है? लेकिन, एक गरीब देश के लिए यह सच नहीं है, जहां बेतहाशा वृद्धि ने अत्यधिक फायदे दिए हैं और वामपंथ की इस भविष्यवाणी को खारिज किया कि बाजार कामगार वर्ग को गरीब बना देंगे।
वृद्धि पर संदेह जताने वाले जापान का क्लासिक उदाहरण देते हैं, जहां वृद्धि 25 वर्षों तक ठहरी रही और फिर भी गिरती या स्थिर कीमतों के साथ जीवन-स्तर उठता प्रतीत होता है। 1990 और 2007 के बीच जापान का वास्तविक प्रतिव्यक्ति जीडीपी 20 फीसदी बढ़ा था। रहस्य नॉमिनल जीडीपी के इस्तेमाल की गलती में निहित है, जबकि वृद्धि को नापने का समझबूझ भरा तरीका तो वास्तविक संदर्भों में प्रतिव्यक्ति जीडीपी है। मैं पर्यावरणविदों से पूरी तरह सहमत हूं, जो अधिकाधिक पानी की खपत, अधिकाधिक कार्बन डाइऑक्साइड उगलने और अधिकाधिक कोयला जलाने को लेकर चिंतित रहते हैं। लेकिन, आर्थिक वृद्धि की तुलना प्रदूषण से करना गलत है। स्वच्छ पर्यावरण के साथ सीमाहीन आर्थिक वृद्धि सैद्धांतिक रूप से संभव है। समस्या जीडीपी के साथ नहीं है बल्कि इसमें है कि हम नीति-निर्माण में इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं। यदि मानव विकास या प्रसन्नता सूचकांक जैसे अन्य सूचकांकों के साथ इस्तेमाल किया जाए तो हम मानव कल्याण का बेहतर आकलन कर सकेंगे। वृद्धिगत असमानता और बाजार की चिंता करने की बजाय हमें सबके लिए अच्छे स्कूलों व अस्पतालों के माध्यम से अवसरों में सुधार के आधार पर आकलन करना चाहिए। याद रखें कि हम विकास के जिस चरण पर है वहां सतत ऊंची आर्थिक वृद्धि, नौकरियां और विश्व अर्थव्यवस्था के प्रति खुलापन समृद्धि की ओर मुख्य रास्ता है।
हालांकि, मोदी ने वह सतत ऊंची वृद्धि नहीं दी है, जो ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए आवश्यक है। उन्होंने इसके लिए परिस्थितियां निर्मित की हैं जैसे जीएसटी, दिवालिया कानून और बिज़नेस करने की आसानी में सुधार। इसलिए 2019 में कोई भी चुनाव जीते, भारत को अगले 5-10 साल में इसका फायदा मिलने लगेगा, क्योंकि देश एक बार फिर सतत ऊंची वृद्धि की दहलीज पर है। (यह लेखक के अपने विचार हैं)

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