(प्रो. लल्लन प्रसाद)
(साभार दैनिक जागरण)

भारतीय अर्थव्यवस्था को हाथी की संज्ञा दी जाती है जो पहले धीमी चाल से चल रहा था, अब वह दौड़ लगाने को तैयार है। पिछले वित्त वर्ष में देश में विकास दर 6.7 प्रतिशत रही जिसके इस वर्ष 7.3 प्रतिशत होने की संभावना है। इसकी पुष्टि विश्व की अधिकांश वित्तीय संस्थाएं एवं क्रेडिट एजेंसियां कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान है कि अगले वित्त वर्ष में यह 7.5 प्रतिशत होगी। वर्ष 2014-15 में विकास दर 7.4 प्रतिशत थी जो 2016-17 एवं 2017-18 के दौरान मुख्य रूप से नोटबंदी व जीएसटी के कारण नीचे फिसली। वैसे इस दशा में सुधार आ रहा है जिसे पूरी अर्थव्यवस्था में समग्रत से देखा जा सकता है।

उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ रही है, कंपनियों का मुनाफा बढ़ रहा है, औद्योगिक उत्पादन कई महीनों से शिथिल रहने के बाद बढ़ने लगा है। मानसून की बारिश सामान्य से अधिक होने और सरकार की अधिक दर पर किसानों से अनाज खरीदने की घोषणा से किसानों की आमदनी में वृद्धि होने की उम्मीद है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल की कीमतों में आया उछाल अब थम रहा है। भारत का निर्यात भी बढ़ रहा है। भारतीय कंपनियों के शेयरों की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर आ गई हैं। पिछले एक वर्ष में 8,000 प्वाइंट की वृद्धि पूंजी बाजार के लिए शुभ संकेत है। भारत विश्व की छठवीं आर्थिक शक्ति के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। देश की कुल संपत्ति 8,230 बिलियन डॉलर आंकी जा रही है। अमेरिका और चीन भारत से बहुत आगे हैं, किंतु विश्व पटल पर भारत को तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है।

अर्थव्यवस्था के आगे चुनौतियां भी कम नहीं हैं। कीमतों का स्तर बढ़ रहा है। पिछले तीन वषों में मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण ढीला पड़ रहा है। वित्तीय घाटे में भी वृद्धि की संभावना जताई जा रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सुझाया है कि खाद और अनाज पर दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की आवश्यकता है। किंतु आम चुनाव नजदीक होने से सरकार के लिए सब्सिडी में कटौती करना मुश्किल है। अनेक कल्याणकारी योजनाओं में धन का व्यापक इस्तेमाल होने के कारण सरकार के लिए ऐसा करना मुश्किल है। राज्यों द्वारा किसानों की कर्ज माफी भी वित्त व्यवस्था के लिए कठिनाई पैदा कर रही है, अगले वित्त विर्ष का बजट और आने वाले वषों में भी इनका प्रभाव संभावित है।

उधर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बड़ी आर्थिक शक्तियों द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखने की नीति निर्यात वृद्धि में बाधा डाल सकती है। मंदी की स्थिति अभी भी पूरी तरह से छटी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय बाजार शिथिल है। अमेरिका और चीन में ट्रेड वार की स्थिति है। ईरान पर अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से कच्चे तेल की सप्लाई पर असर पड़ सकता है जिससे कीमतें बढ़ सकती हैं। 11990 के दशक के प्रारंभ से आर्थिक सुधारों-वैश्वीकरण और निजीकरण का जो सिलसिला शळ्रू हळ्आ, उससे अर्थव्यवस्था को गति मिली, और हंिदूू विकास दर (3-4 प्रतिशत) से देश बहुत आगे निकल गया। साथ ही लाइसेंस राज समाप्त हुआ। विदेशी निवेशकों के लिए द्वार खोल दिए गए जिसका परिणाम सुखद हुआ। 1991 में भारत के पास मात्र एक बिलियन डॉलर की विदेशी मुद्रा थी। बैंक आफ इंग्लैंड से विदेशी मुद्रा लेने के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा।

आज रिजर्व बैंक के पास 426 बिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा है। इस दौरान स्वदेशी निवेश में भी वृद्धि हुई। पिछले दो वषों से देशी निवेशक नई पूंजी लगाने में हिचक रहे थे। अब वे आगे आ रहे हैं। औद्योगिक विकास और किसानों की आमदनी बढ़ने से रोजगार की दशा भी सुधरेगी। लाखों उच्च शिक्षा प्राप्त युवा बेकार हैं। रोजगार की समस्या गंभीर होने के प्रमुख कारणों पर देश के राजनेता बहस नहीं करते। प्राकृतिक संसाधनों की अपनी सीमा होती है जबकि दूसरी ओर आबादी का बोझ बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण का संकट बढ़ रहा है, कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है, किंतु आबादी पर कोई लगाम नहीं है। आगामी दशक में भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला देश हो जायेगा। आबादी की इस वृद्धि को पश्चिमी अर्थशास्त्री और नेता भारत के लिए वरदान मानते हैं क्योंकि इससे उनकी बाजार व्यवस्था को लाभ हो रहा है। उनकी चीजों की मांग बढ़ रही है। यह सच है कि भारत युवकों का देश बन गया है, किंतु इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार उपलब्ध कराना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। बढ़ती आबादी का एक बड़ा दुष्परिणाम यह भी है कि गरीबी रेखा के नीचे की कुल संख्या कम नहीं हो रही है, प्रतिशत में भले कम दिखती है। देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ रही है।

बढ़ रही आर्थिक विषमता 1देश में अरबपतियों की संख्या में वृद्धि हुई है। निजी क्षेत्र के विस्तार के लिए यह शुभ संकेत है, किंतु देश की आबादी के एक बड़े हिस्से तक आर्थिक विकास का लाभ उस मात्र में नहीं पहुंच पा रहा है जो अपेक्षित है। ऑक्सफैम ने दावोस अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस के पूर्व जो आंकड़े भारत में आर्थिक विषमता के प्रस्तुत किए थे वे चौंकाने वाले हैं। देश के मात्र 101 औद्योगिक घरानों को आर्थिक विकास का एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है। आर्थिक विषमता का एक कारण भारतीय समाज का जातियों और धर्मों के आधार पर वर्गीकरण एवं विभाजन भी है जो सैकड़ों वषों से चला आ रहा है। आजादी के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा हाल के वषों में पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा के पीछे मूल भावना यही थी कि विकास की मुख्यधारा में उन्हें लाया जाए जो आंशिक रूप से ही सफल हो पाया है। आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण और अन्य सुविधाओं का आधार बनाने की कवायद वोट बैंक की राजनीति के कारण मुमकिन नहीं हो पा रही है।

अमीरों पर भारी टैक्स लगाना विषमता को दूर करने का एक बहुचर्चित उपाय है, लेकिन इसके परिणाम अर्थव्यवस्था के लिए घातक भी हो सकते हैं। इससे स्वदेशी पूंजी निवेश हतोत्साहित हो सकता है। अर्थव्यवस्था में पूंजी का महत्व बढ़ता जा रहा है और मानव श्रम का कम होता जा रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद यह सिलसिला शुरू हुआ जो अब और प्रभावशाली है। दरअसल आर्थिक विकास की पूंजी पर निर्भरता पूंजीपतियों को ताकत देती है।

विकासशील अर्थव्यवस्था में करों और अन्य स्नोतों से सरकार को जो आमदनी होती है उसका सदुपयोग आवश्यक है। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार दीमक की तरह सरकारी पूंजी को चाट जाता है। सरकारी उद्योगों, वित्तीय संस्थानों और बैंकों का प्रशासन स्वच्छ तथा कुशल न होने पर सरकारी पूंजी का तेजी से हृास होता है। सरकारी क्षेत्र के बैंक इसके उदाहरण हैं। आज देश के 21 में से 19 सरकारी क्षेत्र के बैंक घाटे में चल रहे हैं। दो बैंकों ने पिछली तिमाही में जो मुनाफा दिखाया वह भी नाममात्र है। बैंकों ने उद्योगपतियों को 54 लाख करोड़ रुपये के कर्ज दे रखे हैं, जिनमें 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक एनपीए घोषित हो गया है। सितंबर अंत तक यह आंकड़ा 13 लाख करोड़ रुपये तक हो जाने की आशंका है। इतनी बड़ी रकम से स्वास्थ्य सेवाओं पर 50 गुना और शिक्षा पर 30 गुणा अधिक धन खर्च किया जा सकता है।

पिछले तीन वषों में भारत सरकार ने बैंकों को एनपीए के संकट से उबारने के लिए 1.4 लाख करोड़ रुपये दिए। इस वर्ष 65,000 करोड़ रुपये का वादा है। सरकारी बैंकों के अलावा कई सरकारी उद्योग भी घाटे में जा रहे हैं। सरकारी कंपनियों में अच्छी आमदनी केवल एकाधिकार वाली कंपनियों में ही है, जैसे कच्चा तेल, पेट्रोलियम, गैस आदि। 1पिछली सरकार में अरबों रुपये के घोटाले हुए, जिससे अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ा। प्रशासन पूर्ण रूप से भ्रष्टाचार मुक्त हो गया है यह मानना भूल है किंतु यह सच है कि शीर्ष स्तर पर प्रशासनिक कुशलता और ईमानदारी बढ़ी है। सरकार अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कठोर कदम उठाने में भी सक्षम रही है जैसे नोटबंदी और जीएसटी। इसके सकारात्मक परिणाम धीरे-धीरे सामने आएंगे।

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