जनवरी, 1993 में पत्रिका डाउन टू अर्थ में ‘वल्र्ड ऑन ए बॉइल’ शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित हुआ था। पत्रिका के तत्कालीन संपादक अनिल अग्रवाल ने लेख में इस बात पर जोर दिया कि 1992 में दुनिया वैश्वीकरण की दिशा में कई कदम बढ़ चुकी है। उन्होंने लिखा कि अनुचित विश्व व्यापार नियमों और जलवायु समझौते वाला यह साल दुनिया में बड़े पैमाने पर व्याप्त असमानता में वैश्वीकरण का रुख और कार्यक्रम तय करेगा। करीब 25 साल बाद ऐसा लगता है कि विश्व में दरार ही नहीं पड़ी है, बल्कि यह बिखर भी गया है। जानबूझकर की गई गलतियों के दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विश्व व्यापार के वे नियम, जो उस समय के अमीर देशों ने गरीब लोगों और पर्यावरण के हितों को ताक पर रख कर बनाए थे, उन तथाकथित अमीर देशों के लिए भी मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। यह सही है कि वैश्वीकरण ने बाजारों को जोड़ा है, व्यापार को खोला है और दुनिया में कुछ देशों को और ज्यादा समृद्ध बनाया है। एक और घटनाक्रम ने सबका ध्यान खींचा है और वह है इंटरनेट की अप्रत्याशित मगर शानदार वृद्धि। इसने लोगों को जोड़ा है, लेकिन सबसे अहम यह है कि यह हमारे क्षेत्र में बाजार का संवाहक बना है।

वैश्वीकरण ने उत्पादन की प्रकृति बदल दी है। अब उत्पादन उन देशों में नहीं हो रहा है, जहां श्रम, पर्यावरण, और सामग्री की लागत बहुत अधिक थी, बल्कि इसकी रफ्तार ने उन देशों में जोर पकड़ा है, जहां लागत कम है या इससे कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता है। हालांकि श्रम दूसरे देशों में नहीं गया है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नई आर्थिक व्यवस्था में पहले रोजगार में लगे और संपन्न लोग स्वयं को ठगा महसूस कर रहे हैं। ब्रेक्सिट के बाद दुनिया एक बड़े व्यापार युद्ध की तरफ बढ़ रही है।

इंटरनेट ने कारोबार का ढर्रा बदल दिया है। इन दोनों बातों का असर यह हुआ है कि कारोबार परंपरागत दुकानों से बाहर होने लगा है। इनकी जगह अब इंटरनेट आधारित कारोबार, निगमित ढांचे और धन उगाही करने वाले तंत्र ने ले ली है। यह तंत्र कर चोरी से लेकर गोपनीय सूचनाएं चुराने तक में शामिल है। इस पूरे बदलाव में हम साझेदार रहे हैं। यह खासा आसान दिखा है। सोशल मीडिया के इस दौर में हमने ऊं ची छलांग लगाई है। इस खेल में हम नए किरदार बन गए हैं। हमने सभ्यता और क्रूरता के बीच की रेखा पार कर ली है। हमें ऐसा लगा कि दुनिया में हम बदलाव ला रहे हैं। ऐसा बोध हुआ कि सोशल मीडिया का हिस्सा बनकर हम सरकार पर कदम उठाने के लिए दबाव बना रहे हैं। हमें लगा कि हम पूरी तरह नियंत्रित हैं और बदलाव लाने की अगुआई कर रहे हैं।

आखिर, हमारी सोच कितनी गलत साबित हुई। तकनीक ने हमारी आंखों पर पट्टी बांध दी। मौजूदा सच्चाई यह है कि आज अगर लोकतंत्र को किसी चीज से सबसे अधिक खतरा है तो वह है सोशल मीडिया। हाल में सामने आए फेसबुक कांड ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। व्यक्तिगत तुच्छ गोपनीयता की तो बात ही छोड़ दीजिए। दरअसल हमसे अपना नेता चुनने की आजादी छीनी जा रही है। यह महज संयोग नहीं है और ना ही हम इसे दुर्घटना का नाम दे सकते हैं। दरअसल यह हमारी उस सोच का हिस्सा है जब हमने अपनी सुविधा के हिसाब से चीजें चुनने और इन्हें अपनाने का निर्णय लिया था। वास्तव में सोशल मीडिया की दुनिया केवल साझा करने तक ही सीमित है और इसका लोगों की वास्तविक जरूरतों और कल्याण से कोई लेना-देना नहीं है।

समस्या की जड़ यह है कि हमने उन चीजों को दुरुस्त नहीं किया, जो टूटी हुई थीं। हम बस आगे बढ़ते गए। हाल में ही ऑक्सफेम ने अपने एक अध्ययन में कहा है कि विश्व की एक प्रतिशत धनाढ्य आबादी और वास्तव में दुनिया के आठ सबसे अमीर लोगों के पास दुनिया के आधे सबसे अधिक गरीब लोगों के संयुक्त धन के मुकाबले अधिक संपत्ति है। 1992 में दुनिया में असमानता और विभाजन अधिक था। अब 2019 में स्थिति उससे भी बदतर हो गई है। जलवायु परिवर्तन से चीजें आसान नहीं हो रही हैं। पूरी दुनिया में आसन्न प्रलय के संकेत मिलने लगे हैं। प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक चोट गरीब खासकर किसानों को झेलनी पड़ती है।

आपदाओं से बचने के लिए उनके पास पर्याप्त सुरक्षा उपाय भी नहीं हैं। हालांकि, चर्चा का विषय केवल गरीबों तक ही सीमित नहीं है। प्रलय आ रही है और पूरी दुनिया इसकी शिकार होगी। दरअसल दिक्कत उस विरासत से है, जिसे हमने बरकरार रखी है। यह मामला केवल कार्बन डॉइऑक्साइड के उत्सर्जन तक ही सीमित नहीं है। परेशानी की मुख्य वजह यह है कि दुनिया ने जलवायु परिवर्तन पर एक ऐसे समझौते पर हामी भरी है, जिसमें सहयोग में असमानता दिख रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो दुनिया के देशों में परस्पर सहयोग नहीं दिख रहा है और गरीब देशों ने इसलिए उत्सर्जन कम नहीं किया, क्योंकि अमीर देशों ने अपनी हठधर्मिता नहीं छोड़ी। इस समय जीवाश्म ईंधन आधारित अर्थव्यवस्था का विकल्प हमारे पास मौजूद नहीं है। अगर दुनिया पर्यावरण से जुड़ी जिम्मेदारी साझा करने पर सहमत हुई होती तो आपसी सहयोग दिखता और आर्थिक वृद्धि का एक नया माध्यम जरूर मिल जाता।

अब सवाल यह है कि हम क्या कर सकते हैं? जो घटित हो चुका है, उसे हम बदल नहीं सकते। हालांकि हम एक दूसरे तरीके से नुकसान की भरपाई जरूर कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो हमें एक बार फिर मिल बैठकर नए सिद्घांत प्रतिपादित करने चाहिए, जो दुनिया के देशों, कारोबार और लोगों के लिए आगे की राह प्रशस्त कर सके। यानी नैतिकता और न्याय की राजनीति हमें फिर अपनानी होगी। दुनिया के देशों का संविधान एक बार फिर लिखने की जरूरत है। मैं जानती हूं कि यह सोच आदर्शवादी लगती है और अंधी आधुनिकता की होड़ में व्यस्त इस दुनिया की कसौटी पर कतई खरी नहीं उतरती है। अगले 25 साल हम मौजूदा ढर्रे पर चल सकते यह भी विकल्प नहीं है।

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