पुष्परंजन संपादक, ईयू-एशिया न्यूज़

नेपाल के प्रधानमंत्री केपीएस ओली की नई दिल्ली यात्रा सफल हुई या असफल, इस सवाल पर उनके देश में सरकार समर्थकों और विरोधियों के बीच मतभेद का हिमालय खड़ा हुआ है। नेपाली कांग्रेस के नेता और पूर्व विदेश मंत्री प्रकाश शरण महत कह रहे हैं कि भारत के विरुद्ध बोली की गोली दागने वाले ओली ने इस बार यू-टर्न लिया है। महत के शब्दों में, ‘भारत-नेपाल के बीच बेहतर संबंध पहले से रहे हैं, ओली दरअसल खुद के संबंध अच्छे करने के लिए नई दिल्ली गए थे।’ आज की तारीख में नेपाली कांग्रेस जिस तरह आक्रामक हुई है, ऐसे तेवर कभी धुर वामपंथियों व प्रतिक्रियावादियों के हुआ करते थे। यह नेपाली राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) है। इसकी काट में प्रधानमंत्री ओली ‘रियल पॉलिटिक्स’ यानी व्यावहारिक राजनीति का कौन-सा कार्ड खेलेंगे, इसका अंदाज काठमांडू के कूटनीतिक मौसम विज्ञानी भी नहीं कर पा रहे थे।

ज्यादा दिन नहीं हुए, जब आम चुनाव में ओली ने भारत विरोध और चीन से सहानुभूति हासिल करने का कार्ड खेला था। उससे धुर वामपंथी प्रतिक्रियावादी भी उनके समर्थक हो गए थे। नेपाली वामपंथियों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने में चीनी दूतावास की भी बड़ी भूमिका रही थी। सितंबर 2015 में 134 दिनों की नाकेबंदी, नेपाल में आवश्यक वस्तुओं का अभाव और राष्ट्रीय स्वाभिमान को ओली ने एक बार फिर चुनावी एजेंडा बनाया था। नई दिल्ली से लौटने के बाद ओली इसी ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान’ के सवाल पर उलझे हुए हैं।

ओली ने सत्ता में आते ही पूर्व प्रधानमंत्री देउबा द्वारा जलविद्युत परियोजना का ठेका दोबारा से देने के लिए एक कंगारू कमेटी का गठन कर दिया। उससे सबने अंदाजा लगाया कि बूढ़ी गंडकी पर 2.5 अरब डॉलर का ठेका चीन की कुख्यात कंपनी ‘केझोउबा ग्रुप’ को देने के वास्ते यह सारा कुछ हो रहा है। ओली नेपाल की जल विद्युत परियोजनाओं में निवेश के वास्ते दो नावों पर सवार हैं। उन्हें भारतीय और चीनी, दोनों निवेशक चाहिए।

प्रश्न यह है कि नेपाल को लेकर हमारी सोई हुई कूटनीति क्या पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी के नेपाल जाने से जगी है? 4 मार्च, 2018 को अब्बासी का अचानक नेपाल पहुंचना चौंकाने वाली घटना थी। अब्बासी ने नेपाल को ग्वादर पोर्ट के इस्तेमाल का जो ऑफर दिया, उस चीनी चक्रव्यूह को नई दिल्ली ने तुरंत भांप लिया। बिना चीन की हरी झंडी के पाक प्रधानमंत्री इस तरह का रोडमैप कैसे दे सकते थे?

नेपाल के किसी भी प्रधानमंत्री के लिए कूटनीति, सगरमाथा (एवरेस्ट पर्वत का नेपाली नाम) के इस पार खेलनी है या उस पार, यह तय करने की दुविधा रहती है। इस भूपरिवेष्ठित राष्ट्र के लिए समुद्र तक का रास्ता हर बार राजनीतिक एजेंडा बनता है। अप्रैल 2015 में नेपाल में भूकंप के दौरान चीन ने कई और बॉर्डर प्वॉइंट खोलने का चुग्गा फेंका था। वह यहीं नहीं रुका। उसके पांच माह बाद सितंबर 2015 में 134 दिनों की भारतीय सीमा पर नाकेबंदी का भी उसने पूरा कूटनीतिक फायदा उठाया।

उस समय नेपाल के तथाकथित राष्ट्रवादियों और प्रतिक्रियावादियों के लिए ओली हीरो की तरह थे। तब उनके भारत विरोध का ब्रांड नाम था- ओली की गोली। इस दवाब का नतीजा था कि नेपाली कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को कोदारी के बदले केरूंग समेत सात बॉर्डर प्वॉइंट खोलने के वास्ते चीन से सहमत होना पड़ा। बाद में प्रचंड, और दोबारा ओली के सत्ता में आने तक चीन 13 और बॉर्डर प्वॉइंट खोलने का प्रस्ताव दे चुका है। इस समय 1,236 किलोमीटर लंबी नेपाल-चीन सीमा पर छह बॉर्डर प्वॉइंट खुले हुए हैं।

चीन, इस इलाके में वन बेल्ट वन रोड यानी ओबीओआर को कैसे आगे बढ़ाए, यह शी जिनपिंग की व्यूह रचना का एक बड़ा हिस्सा रहा है। 27 मार्च, 2017 को प्रचंड और शी की बीजिंग में मुलाकात का सबसे बड़ा एजेंडा ‘ओबीओआर’ था। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि आज जिस नेपाली कांग्रेस के नेता प्रकाश शरण महत को नई दिल्ली से ओली की नजदीकियों को लेकर तकलीफ हो रही है, उनकी मौजूदगी में 12 मई, 2017 को ‘ओबीओआर’ पर दस्तखत किए गए थे। तिब्बत से नेपाल तराई तक सर्वे और ब्लूप्रिंट को ध्यान से देखिए, तो लग जाता है कि 20 साल में चार हजार किलोमीटर ‘चीनी रेल डेवलमेंट प्लान’ क्या था? केरूंग से काठमांडू, पोखरा, बुटवल और फिर तराई में मेची से महाकाली तक चीनी रेल का विस्तार। यह डोका ला की भू-सामरिक रणनीति से भी घातक है। इससे दिल्ली समेत उत्तर भारत के किसी भी शहर तक चीनी पहुंच कितनी आसान हो जाती है!

नेपाल को किस देश की रेल परियोजना चाहिए? 2013 में जनकपुर अंचल के बर्दिबास-सेमरा-बीरगंज तक 136 किलोमीटर इलेक्ट्रिक रेल के वास्ते 99 अरब रुपये की एक योजना दक्षिण कोरिया की चुंगसुक इंजीनिर्यंरग, कोरिया रेल प्राधिकरण और ‘कुन्हवा कन्सल्टिंग’ के माध्यम से बनी और खटाई में पड़ गई। 2010 में ‘राइट्स इंडिया’ ने मेची से महाकाली तक ब्रॉडगेज रेल ट्रैक का एक सर्वे कराया था। करीब दस साल पहले इस रेल लाइन का बजट 800 अरब रुपये का था। लेकिन यह मामला भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सबसे खतरनाक चीनी रेल प्रोजेक्ट ल्हासा-काठमांडू-लुंबिनी का है।

नेपाली नेतृत्व की दिक्कत यह है कि उसे बिना अंडे का ऑमलेट चाहिए। मतलब, रक्सौल से काठमांडू रेल चलाने की घोषणा कर तो दी, अब उसके वास्ते सर्वे और फंड की व्यवस्था भारत की नरेंद्र मोदी सरकार करे। प्रधानमंत्री मोदी ने सगरमाथा से सागर तक कनेक्टिविटी का जो कूटनीतिक कार्ड खेला है, उससे चीन भी चकित है। जो सपना प्रधानमंत्री ओली ने नई दिल्ली आकर देख लिया है, उसे पूरा करना कोई साधारण चुनौती नहीं है। भूकंप, लगातार हड़ताल, आर्थिक नाकेबंदी, राजनीतिक अस्थिरता से नेपाल जर्जर हो चुका है। ऐसे नेपाल को संवारना, और इस बीच कूटनीतिक भरोसे का जो भूस्खलन हुआ है, उसे ठीक करना क्या इतना आसान है? कर्नाटक चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी किसी भी तारीख पर नेपाल जाएंगे, तब तक नेपाल में भारतीय योजनाओं को कैसे मूर्त रूप देना है, इसका खाका तो तैयार हो जाना चाहिए।

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