*📻🌼स्वामित्व या रोजगार?*
टी. एन. नाइनन

नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का कहना है कि जब तक कोई कंपनी देश की आर्थिक गतिविधियों में योगदान दे रही है और यहां रोजगार तैयार कर रही है तब तक उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि उस कंपनी का मालिक कौन है। राष्ट्रवादी नजरिया रखने वाले संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने तत्काल कुमार की बात को चुनौती दी। यह एक अहम मसला है जिसे आगे और खंगाला जाना जरूरी है। दो उदाहरणों पर विचार करते हैं। जगुआर लैंड रोवर (जेएलआर) और मारुति सुजूकी। टाटा ने इनमें से पहली को 2.5 अरब डॉलर की रकम चुका कर खरीदा था।

कंपनी की फैक्टरियां चीन और ब्रिटेन में हैं। इसके शोध एवं विकास पर ढेर सारा बजट ब्रिटेन में व्यय किया जाता है। कंपनी पूरे साल में करीब 5 लाख की तादाद में इसके महंगे वाहन बेचती है। इसे खरीदने वाले भारतीयों की तादाद बेहद कम है। बिक्री, रोजगार, तकनीक, हर दृष्टिï से इस कंपनी में कुछ भी भारतीय नहीं है। परंतु मालिकाना होने के अपने फायदे हैं। टाटा ने कंपनी को खरीदने में जितनी राशि व्यय की थी उसका 80 फीसदी तो उसे सालाना कर पूर्व लाभ के रूप में हासिल होता है। जाहिर है यह एक सफल निवेश साबित हुआ। मारुति सुजूकी की कहानी इसके एकदम उलट है। कंपनी में जापान की सुजूकी मोटर्स की बहुलांश हिस्सेदारी है। कंपनी सालाना 17 लाख कारों का निर्माण करती है। ये कारें भारत में बिकती हैं या निर्यात कर दी जाती हैं। कंपनी के लगभग सारे कर्मचारी भारतीय हैं। मारुति कर के रूप में भारी भरकम राशि चुकाती है और अपने वेंडरों और सर्विस स्टेशनों की बदौलत ढेर सारे रोजगार भी तैयार करती है। निश्चित तौर पर कंपनी की कमाई करीब उतनी ही है जितनी कि सुजूकी जापानी बाजार में कमाती है।

सुजूकी के लिए यह सोने की खान साबित हुई, ठीक वैसे ही जैसे जेएलआर टाटा के लिए। मारुति के भारतीय निवेशकों ने भी भारी कमाई की। कंपनी के शेयर भी बाजार में सबसे बढिय़ा प्रदर्शन करने वाले शेयरों में हैं। सवाल यह है कि देश के लिए किसकी तवज्जो ज्यादा होनी चाहिए-जेएलआर की या मारुति की? मेरे ख्याल से तो मारुति देश को अधिक फायदा पहुंचाने वाली कंपनी है। क्या हम हजारों रोजगार, हजारों करोड़ रुपये के कर राजस्व, वाहन कलपुर्जा उद्योग के विकास और कार निर्यात से हासिल विदेशी मुद्रा के बदले सुजूकी की प्राप्तियों की मारुति से अदलाबदली कर सकते हैं? अगर हम ऐसा करें तो शायद दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख कहलाएंगे। इसी प्रकार अगर जेएलआर भारत में होती तो हम बेहतर स्थिति में होते क्योंकि फैक्टरियां यहां होतीं और हम भारी तादाद में चीन तथा अन्य देशों को कार निर्यात करते। इसके अलावा देश में ढेर सारे रोजगार और प्रौद्योगिकी विकास होता। इन सबके बदले हम वह मुनाफा छोड़ देते जो टाटा कंपनी के मालिकाने से हासिल करती? जाहिर है इसमें भी कोई बुद्घिमानी नहीं होती क्योंकि इस पूरे समीकरण में स्वामित्व का कोई महत्त्व ही नहीं।

जाहिर है राजीव कुमार ने एकदम सही बात कही। परंतु उन्हें यह जानना चाहिए कि यह पूरी कहानी नहीं है। हमें फ्लिपकार्ट पर भी विचार करना चाहिए जिसने कुछ वर्ष पहले अपना केंद्र भारत से हटाकर सिंगापुर कर लिया था क्योंकि कंपनी को लगा कि खुदरा कारोबार को लेकर भारत में नियम कायदे सख्त हैं। सिंगापुर ने कम दर की पेशकश की, वहां पैसे तक पहुंच आसान थी और अन्य लाभ भी थे। परिणामस्वरूप पिछले महीने जब वॉलमार्ट ने कंपनी को खरीदा तो 16 अरब डॉलर के इस निवेश में भारत के लिए कुछ खास नहीं था। हालांकि यह निवेश भारतीय बाजार के लिए किया गया। इस स्टार्टअप ने किसी अन्य की तुलना में अधिक अंशधारक मूल्य तैयार किया लेकिन वह भारतीय नहीं रह सकी और उसका अधिकांश तैयार मूल्य विदेशियों के खाते में गया। अगर देश में फ्लिपकार्ट जैसी कंपनी के लिए कारोबारी हालात बेहतर होते तो क्या अच्छा नहीं होता?

मंच तो एयर इंडिया की बिक्री के भी खिलाफ है। पहला सवाल तो यही है कि एयर इंडिया का देश के लिए क्या मूल्य है? यह विदेशों में बने विमान उड़ाती है, अधिकांशत: आयातित ईंधन इस्तेमाल करती है, उसकी कोई घरेलू मूल्य संबद्घता नहीं। परिचालन की बात करें तो फाइनैंसिंग की अपनी लागत है और तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव बना रहता है। इसका कोई खास भविष्य नहीं है। कम से कम सरकारी स्वामित्व में तो नहीं है। अगर उसे अधिक उदार शर्तों के साथ बेच दिया जाए तो यह करदाताओं के लिए बेहतर होगा। यह भी हो सकता है कि नया मालिक उसकी तकदीर पलट दे। सरकार को मंच की अनदेखी करते हुए इस दिशा में दोबारा प्रयास करना चाहिए।

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