(डब्ल्यू पी एस सिद्धू, प्रोफेसर, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी )

अस्वीकार करना एक मनोवैज्ञानिक रक्षा कवच है, जिसका इस्तेमाल लोग तब करते हैं, जब वे विभिन्न घटनाओं से असहज महसूस करते हैं और अपनी चिंता कम करना चाहते हैं। इन दिनों, जब ऐसा लग रहा है कि आने वाले दिनों में तर्कशील लोग भी सच्चाई को सिरे से खारिज कर देंगे, तब वैकल्पिक तथ्यों के सामने आने से लोगों में नकारने की प्रवृत्ति बढ़ी है। कभी-कभार ऐसे तथ्य हकीकत व फसाने के बीच की खाई को गहरा कर देते हैं और उनमें अंतर कर पाना मुश्किल बना देते हैं। साल 2017 में नकारने की यह प्रवृत्ति देश और क्षेत्र के स्तर पर ही नहीं, वैश्विक फलक पर भी साफ-साफ देखी गई है।

इस साल अमेरिका से लेकर जापान तक हुए तमाम चुनावों में, यानी ब्रिटेन, फ्रांस और तुर्की में भी, मतदाताओं ने खंडित जनादेश को नकारते हुए दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टियों का मजबूती से साथ दिया। मगर चुनाव के बाद ज्यादातर नेताओं की लोकप्रियता में तेजी से आई गिरावट इस बात का भी संकेत है कि ये जनादेश काफी क्षीण हैं।

फ्रांस में नए राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन की लोकप्रियता शुरुआती 100 दिनों में ही इतनी गिर गई, जितनी वहां के किसी पूर्व राष्ट्रपति की नहीं गिरी होगी। यहां तक कि वहां के सबसे अलोकप्रिय राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद से भी उन्हें कमतर आंका गया। महज 36 फीसदी मतदाताओं ने मैकरॉन के प्रदर्शन को सराहा। वहीं इंग्लैंड में, मध्यावधि चुनाव का दांव खेलने वाली प्रधानमंत्री थेरेसा मे का समर्थन घटकर 34 फीसदी रह गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो पद संभालने के महज आठ दिनों के बाद ही अपनी लोकप्रियता में 51 फीसदी की कमी दर्ज कराके मानो रिकॉर्ड बना डाला। उनके प्रति नाराजगी ‘नॉट माइ प्रेसिडेंट’ (मेरे राष्ट्रपति नहीं) नाम से हुई रैलियों में स्पष्ट दिखी। जाहिर है कि 2017 में हुए ज्यादातर चुनाव यही बता रहे हैं कि मतदाताओं में गहरे मतभेद हैं। वे अपनी समस्याओं का तुरंत समाधान चाहते हैं, भले वे हल अस्थाई ही क्यों न हों। साथ ही, वे ऐसे नेताओं की भी कल्पना पाल रहे हैं, जो खंडित जनादेश के बावजूद वादा निभाने में सक्षम हो। इस साल लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र देशों के मुखिया भले अपनी सत्ता बरकरार रखने को संघर्ष करते दिखे हैं, मगर चीन में शी जिनपिंग ने 19वीं कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के माध्यम से अलोकतांत्रिक ढंग से अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। उन्हें पुराने निर्विवाद नेता माओत्से तुंग की तरह अभूतपूर्व अधिकार मिल गए हैं।

ऐसे ही हालात क्षेत्रवार भी रहे। इंग्लैंड में ब्रेग्जिट को लेकर हुआ मतदान और यूरोपीय संघ के साथ उसके दर्दभरे अलगाव की प्रक्रिया में सामूहिक रूप से नकारने की प्रवृत्ति देखी गई। हालांकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के लिए ब्रिटेन ने खुशी-खुशी वोट दिए, पर यह भी उम्मीद जताई कि इंग्लैंड और आयरलैंड सहित यूरोपीय संघ के तमाम सदस्य देशों के बीच लोगों व उत्पादों की पूर्व की भांति स्वतंत्र आवाजाही बनी रहे। दरअसल, हैरान मीडियाकर्मियों ने यूरोपीय संघ पर ब्रिटेन की आलोचनात्मक टिप्पणियों को ‘यूरोपीय संघ ने आखिर हमारे लिए क्या किया है’ के रूप में पेश किया, जबकि तमाम ऐसी सूचनाएं जगजाहिर थीं, जो गवाही दे रही थीं कि कौन-कौन सी सार्वजनिक परियोजनाओं में यूरोपीय संघ का पैसा लगा है। अब इस बात का एहसास होने पर कि भारी कीमत (अनुमानित 50 अरब पौंड से ज्यादा की राशि) चुकाने के बाद ही ब्रिटेन यूरोपीय संघ का साथ छोड़ सकता है, आम लोगों की मानसिकता साफ-साफ समझी जा रही है। इसके दो राजनीतिक नतीजे भी सामने आए हैं- पहला, टेरेसा मे की लोकप्रियता गिरी है और दूसरा, एक संसदीय फैसला लिया गया है कि ब्रेग्जिट पर आखिरी मतदान संसद में होगा।
दक्षिण एशिया में सच्चाई को नकारने का भाव पाकिस्तान में दिखा। वह खुद को उप-महाद्वीप में अलग-थलग करने में जुटा रहा। उसने उभरते क्षेत्रीय रेलवे व सड़क संबंधों और उपग्रह सेवाओं से जान-बूझकर बाहर निकलने की राह चुनी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि दक्षिण एशिया को एकजुट करने के ऐसे प्रयासों से बाहर निकलना इस्लामाबाद के लिए कितना फायदेमंद रहेगा या इससे अपनी उस बुनियादी सोच पर वह कितना आगे बढ़ पाएगा कि उप-महाद्वीप में भारत के नेतृत्व की भूमिका को खारिज किया जाए? मगर आर्थिक रूप से फायदेमंद होने पर संदेह के बावजूद चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर उसका आगे बढ़ना यह बताता है कि दक्षिण एशिया में नई दिल्ली के बढ़ते दबदबे को वह समझ रहा है, इसीलिए चीन से राजनीतिक व आर्थिक संरक्षण पाने की जुगत में है।

नकारने की प्रवृत्ति वैश्विक फलक पर भी व्यापक तौर पर देखी गई। मसलन, संयुक्त राष्ट्र में सुधार के संदर्भ में भारत के खिलाफ इनकार की मुद्रा जारी है। नई दिल्ली की सुरक्षा परिषद् में स्थाई सदस्यता की मंशा और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में बतौर सदस्य शामिल होने की चाहत तमाम उच्च स्तरीय कोशिशों के बाद भी उसी तरह असंभव दिखी, जिस तरह खराब मानसून में अच्छी बारिश की उम्मीद। उधर, ट्रंप प्रशासन ने जलवायु परिवर्तन को गंभीर समस्या मानने से इनकार कर दिया। उसका यही रवैया ईरान के साथ परमाणु समझौता को लेकर भी रहा। ट्रंप प्रशासन यह सोचकर दुबला होता रहा कि क्या वाकई यह समझौता काम कर रहा है? ‘अमेरिका फस्र्ट’ की अलगाववादी नीति को लेकर भी वाशिंगटन में नकारने का भाव रहा। वहीं, वैश्विक जनमत को नकारता हुआ वह यरुशलम को इजरायल की राजधानी की मान्यता देने पर भी तुल गया।

संभवत: नकारने की यही प्रवृत्ति सामूहिक रूप से इतनी गहरी होती गई कि विश्व बिरादरी ने उत्तर कोरिया को परमाणु शक्ति संपन्न देश मानने से इनकार कर दिया, जबकि आज उसके परमाणु हथियारों की जद में चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यहां तक कि अमेरिका जैसे देश भी हैं। इसी तरह, परमाणु हथियार निषेध संधि की हकीकत को स्वीकार करने की परमाणु ताकत संपन्न देशों की अक्षमता के भी गंभीर नतीजे सामने आ सकते हैं। अगर इस संधि को लेकर समर्थक व विरोधी, दोनों पक्षों में सकारात्मक समझ नहीं बन सकी, तो परमाणु मुक्त दुनिया की कल्पना बेमानी हो जाएगी।

बहरहाल, मनोवैज्ञानिकों की मानें, तो नकारात्मक प्रवृत्ति से पार पाने का एकमात्र तरीका यही है कि सबसे पहले इसके वजूद को स्वीकार किया जाए। सिर्फ हकीकत को स्वीकार करके ही अस्वीकार की स्थिति खत्म की जा सकती है। लिहाजा सवाल यही है कि क्या देशों में, क्षेत्रों में अथवा विश्व में 2018 हकीकत स्वीकार करने वाला साल साबित होग(Hindustan)
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *