भूमिका
देश में स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार का प्रयास करने हेतु लाई गई नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (National Health Policy), 2017 को न तो इस संबंध में कोई राह ही नज़र आ रही है और न ही कोई आधार, जिसके बल पर इस बुनियादी आवश्यकता में कोई विशेष परिवर्तन किया जा सके। जब जीवन और मृत्यु के प्रश्न के संबंध में व्यावहारिकता की अनदेखी की जा रही हो तो उस स्थिति में सुधारों की बात अप्रासंगिक प्रतीत होती है। इस संबंध में पुराने (60 वर्ष या उससे अधिक) रोगों की संख्या, विशेष रूप से तेज़ी से बढ़ते गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable Diseases) विकलांगताओं को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। बढ़ती उम्र के साथ, मनुष्य में कई शारीरिक परिवर्तन होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बहुत से पुराने रोगों के उभरने का खतरा बढ़ जाता है। पुरानी बीमारियों के उभरने और विकलांगता की स्थिति बनने के कारण मृत्यु दर का खतरा भी बढ़ जाता है। इस लेख के अंतर्गत हमने इन्हीं सब बिन्दुओं के संदर्भ में विचार करते हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का विश्लेषण किया है।

स्वास्थ्य नीति की वास्तविकता

हाल ही में प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट “हमारे बुजुर्गों की देखभाल : भारत एज़िंग रिपोर्ट – 2017 (United Nations Population Fund – UNPF)” में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अंतर्गत वृद्ध लोगों की गैर-संचारी रोगों के प्रति भेद्यता एवं हाल की नीतिगत पहलों और सहायता समूहों तथा अन्य सामुदायिक नेटवर्क के निर्माण में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है।
हालाँकि यह सब महत्त्वपूर्ण बिंदु हैं, तथापि यह सामान्य रूप से वृद्ध और पुराने रोगों से पीड़ित लोगों के बीच भेद करने में विफल साबित होते है।

संभवतः यही कारण है कि पुराने रोगों और विकलांगता से पीड़ित लोगों द्वारा ऐसे किसी भी तंत्र में शामिल होना बेहद कठिन साबित हो सकता हैं।

यदि देश की समस्त स्वास्थ्य व्यवस्था पर नज़र दौड़ाएँ तो हम पाऐंगे कि बढ़ते गैर-संचारी रोगों से निपटने के लिये भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहद खराब है।

न तो हमारे स्वास्थ्य कर्मचारी भली-भाँति प्रशिक्षित हैं और न ही उन्हें मनोभ्रंश या दुर्बलता से पीड़ित रोगियों का इलाज़ करने अथवा परामर्श देने के संबंध में अधिक ज्ञान एवं अनुभव ही है।
साथ ही न उनके पास उच्च रक्तचाप जैसी परिस्थितियों का शीघ्र निदान और प्रबंधन का ही पर्याप्त ज्ञान है।

भारत में चिकित्सा देखभाल की गुणवत्ता बेहद अस्थिर है। साथ ही अस्पताल में भर्ती होने की लागत भी अत्यधिक है। हालाँकि स्वास्थ्य बीमा सुविधा के अंतर्गत अवश्य चिकित्सा व्यय के एक अंश को शामिल किया गया है।

पुराने रोगों के संबंध में सावधानियाँ

हालाँकि, रक्तचाप जैसे बहुत से ऐसे पुराने रोग हैं जिनके संबंध में स्वास्थ्य व्यवहारों में परिवर्तन करके तथा कुछ सावधानियाँ बरतते हुए इनका निवारण किया जा सकता है।

शारीरिक गतिविधियों और स्वस्थ आहार के अनुपालन से इन स्थितियों में सुधार किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी रोग होते हैं जिनका पूर्ण निवारण तो संभव नहीं हो पाता है, लेकिन इनके संबंध में कुछ विशेष सावधानियाँ बरतते हुए इनसे उत्पन्न तकलीफ एवं कमज़ोरी को अवश्य कम किया जा सकता है।

हालाँकि इस समस्त प्रक्रिया में हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि इस प्रकार की किसी भी स्थिति का सामना करने के लिये जितनी उपयोगिता चिकित्सकीय सुविधाओं की होती है, उतना ही महत्त्व रोगी के परिवार एवं समुदाय का भी होता है। बिना मानसिक समर्थन एवं सहयोग के ऐसी स्थितियों का सामना करना संभव नहीं हो पाता है।

पुरुषों की अपेक्षा महिला रोगियों की संख्या अधिक

भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आई.एच.डी.एस.) 2015 के आधार पर वृद्ध पुरुषों और महिलाओं (60 वर्षों से अधिक) में गैर-संचारी रोगों से पीड़ित लोगों के अनुपात में वर्ष 2005 से 2012 के मध्य दोगुनी वृद्धि हुई है।

इस संदर्भ में एक अहम् बात यह है कि पुरुषों की अपेक्षा महिला रोगियों की संख्या सर्वाधिक है।

स्वास्थ्य सेवाओं में आई गिरावट का कारण क्या है?

हालाँकि, वर्ष 2005-12 के दौरान गैर-संचारी रोगों से पीड़ित लोगों की एक विशाल संख्या चिकित्सकीय परामर्श और उपचार की पहुँच में शामिल हुई, तथापि इनकी संख्या में कोई विशेष कमी दर्ज़ नहीं की गई।

चूँकि भारत में चिकित्सा सहायता के प्रदाताओं में काफी विविधता पाई जाती है (यहाँ योग्य डॉक्टरों के बजाय नीम-हकीमों एवं झाड़-फूँक करने वालों पर अधिक भरोसा किया जाता है) तथा चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता में भी तेज़ी से गिरावट आई है।

ऐसी स्थिति में यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि गैर-संचारी रोगों के अनुपात में कमी आने की बजाय वृद्धि दर्ज़ की गई है।
उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ समय में सरकारी स्वास्थ्य बीमा की पहुँच भी लगभग दोगुनी हो गई है, लेकिन वृद्धों से संबंधित बाधाएँ अभी भी व्यापक रूप में विद्यमान हैं। उदाहरण के तौर पर, किसी भी बीमा सुविधा के अंतर्गत पात्रता मानदंड का निर्धारण, धीमी प्रतिपूर्ति दर और बीमा की सुविधा प्राप्त करने संबंधी प्रक्रियाओं के बारे में जागरूकता की कमी कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिनके कारण वृद्ध लोगों को इन सुविधाओं का पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है।

अकेलापन और प्रतिरक्षा

अकेलापन एक कथित अलगाववादी अवधारणा है जो किसी के वांछित एवं वास्तविक सामाजिक रिश्तों के बीच विद्यमान विसंगतियों के कारण परेशानी का भाव उत्पन्न करने वाली भावना के रूप में प्रकट होती है।

संभवतः यही कारण है कि अकेलेपन और मृत्यु दर के बीच का संबंध अस्वास्थ्यकर व्यवहार और मानसिक विकार के चलते उपजता है।
जैसा कि कहा भी जाता है कि किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति उसके स्वास्थ्य का प्रतिबिंब होती है, जैसी मनुष्य की मानसिक स्थिति होगी उसका स्वास्थ्य भी वैसा ही होगा।

इस संबंध में किये गए अनुसंधानों से भी यही जानकारी प्राप्त होती है कि अकेलापन संवहनी प्रतिरोध (Vascular Resistance) को बढ़ाता है और प्रतिरक्षा को कम करता है।

किसी व्यक्ति की स्थिति चाहे अकेलेपन से संबंधित हो अथवा न हो, परंतु गैर-संचारी रोगों के संबंध में एक उच्च जोखिम वाला कारक दैनिक स्तर पर शराब का उपभोग होता है।

ध्यातव्य है कि 2005-2012 की अवधि में दैनिक स्तर पर शराब का उपभोग करने वाले वृद्ध लोगों में गैर-संचारी रोग होने की दर दोगुने से अधिक पाई गई।

समर्थन के रूप में नेटवर्किंग व्यवस्था

इस संबंध में एक अन्य मानक विवाहित और विधवा लोगों के अनुपात का है। वर्ष 2005 के दौरान पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में महिलाओं का विवाह हुआ, जबकि इस समयावधि में विधवा महिलाओं की संख्या बहुत अधिक पाई गई।

हालाँकि, वर्ष 2012 में विवाहित पुरुषों और महिलाओं दोनों के अनुपात में दोगुनी वृद्धि हुई। इस अवधि में विधुर पुरुषों की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई, जबकि विधवा महिलाओं की संख्या में मात्र दो गुणा ही वृद्धि हुई।

अक्सर देखा जाता है कि बुजुर्गों के जीवन में बच्चों की उपयोगिता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समाज में बच्चों को बुजुर्गों के सहारे के रूप में इंगित किया जाता है। परंतु, बदलते समाज की प्रवृत्ति में इस परिदृश में बदलाव आया है जिसके कारण वृद्ध लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई है।

यही कारण है कि जब कभी हम 2 या 4 सदस्यों वाले परिवारों के संबंध में विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि वर्ष 2005 में ऐसे परिवारों में रहने वाले गैर-संचारी रोगों से पीड़ित लोगों में महिलाओं का अनुपात पुरुषों के अनुपात से अधिक था।

उक्त विवरण से स्पष्ट है कि अकेलेपन में कमी लाने का सबसे बेहतर विकल्प पारिवारिक समर्थन होता है न कि किसी प्रकार के बीमा अथवा अन्य सहायता राशि के रूप में प्राप्त सहायता।

इसके अतिरिक्त जितनी अधिक संख्या में वृद्ध लोग सामाजिक नेटवर्कों से संबद्ध होते हैं उतनी ही उनके स्वस्थ होने की संभावना भी होती है, फिर चाहे यह सामाजिक नेटवर्क की संरचना एवं आकार जैसा भी हो।

यदि ये सामाजिक नेटवर्क किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत संबंधों में आई परेशानियों की अवधि में एक मज़बूत बंधन अथवा सहयोग के ढाँचे के रूप में उपलब्ध होते हैं तो समाज में इनकी उपस्थिति पूर्णतया सार्थक साबित होगी।

व्यक्ति के जीवन में ऐसी बहुत सी स्थितियाँ होती हैं, जब उसे किसी के साथ अथवा सहारे की आवश्यकता होती है। ऐसे में यदि ये नेटवर्क प्रभावी भूमिका निभाते हैं

इन आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस समयावधि में गाँवों में गैर-संचारी रोगों से पीड़ित लोगों, जिनके द्वारा अंतर-जातीय या अन्य संघर्षों का अनुभव किया गया, का अनुपात अधिक पाया गया।
स्पष्ट रूप से सामाजिक सामंजस्य का अभाव न केवल इस उम्र में लाचारी के भाव को बढ़ावा प्रदान करता है, बल्कि चिकित्सकीय आपूर्ति और नेटवर्क समर्थन में बाधा भी उत्पन्न करता है।

इस संबंध में डब्लू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट

इस संबंध में डब्लू.एच.ओ. की एक रिपोर्ट (Report on Ageing and Health) काफी प्रभावी प्रतीत होती है।

इस रिपोर्ट में बुढ़ापे के रूप में पहचानी जानी वाली स्थितियों/अवस्थाओं में उम्र, आय या इससे भी कम आंतरिक क्षमता के स्तर के बजाय वृद्ध लोगों को उनके स्वयं के घर और समुदाय में सुरक्षित, स्वतंत्र और आराम से रहने की क्षमता को इंगित किया गया है।
स्पष्ट है कि बढ़ती उम्र के प्रभाव को कम करने के लिये उम्र-अनुकूलित वातावरण स्थापित किया जाना चाहिये।

इससे न केवल व्यक्ति की गतिशीलता में बढ़ावा होता है बल्कि वे अपनी बुनियादी गतिविधियों में भी अधिक संलग्नित रहते हैं।

निष्कर्ष

यदि नीतिगत परिप्रेक्ष्य से बात की जाए तो गैर-संचारी रोगों की स्थिति से निपटने के लिये स्वास्थ्य प्रणालियों को चिन्हित किया जाना चाहिये। लेकिन इसके अंतर्गत इस बात के संबंध में विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये कि इसमें मात्र किसी एक गैर-संचारी रोग को लक्षित न करते हुए सभी गैर-संचारी रोगों को शामिल किया जाए। ध्यातव्य है कि किसी वृद्ध व्यक्ति की रोगों को धारण करने की क्षमता, स्वास्थ्य देखभाल के उपयोग और देखभाल की लागत का विभिन्न रोगों पर प्रभाव सम्रग रूप से अधिक होता है। इसके अलावा इस समस्या के समाधान के रूप में चिकित्सकीय व्यवस्था को चिन्हित करने के साथ-साथ पारिवारिक संबंधों और सामाजिक नेटवर्क को पूरक के रूप में स्थापित किया जाना चाहिये।

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