*चिंतित करते रुझान*

देश के निर्यात जगत से परेशान करने वाले संकेत मिल रहे हैं। निर्यात का स्तर दिसंबर 2017 के 12.3 फीसदी से घटकर जनवरी 2018 में 9 फीसदी रह गया है। इस बीच आयात के 26.1 फीसदी बढऩे से व्यापार घाटा साढ़े चार साल के उच्चतम स्तर पर पहुंचकर 1,630 करोड़ डॉलर हो गया है। कुल मिलाकर देश कानिर्यात अप्रैल-जनवरी 2017-18 में इससे पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 11 फीसदी ही बढ़ा। जबकि समान अवधि में आयात में इससे ठीक दोगुनी गति से बढ़ोतरी हुई।व्यापार घाटे में भी आशा के मुताबिक बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2017-18 के 10 महीनों में यह 13,100 करोड़ डॉलर रहा जबकि पिछले वर्ष की समान अवधि में यह 8,800 करोड़ डॉलर था। तेल कीमतों में भी मजबूती आने लगी है और ऐसे में चालू खाते का घाटा बढऩे की आशंका फिर सर उठाने लगी है। शुरुआती 10 महीनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह वित्त वर्ष 2016-17 की तुलना में निर्यात में 8 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ समाप्त होगा। यह 2016-17 के 5 फीसदी की तुलना में ज्यादा है और देश को 30,000 करोड़ डॉलर से ऊपर के दायरे में बनाए रखेगा जो उसने तीन साल पहले हासिल किया था। ऐसे समय में जबकि विश्व व्यापार में 2017 में 3.6 फीसदी की दर से वृद्धि हुई यह काफी निराशाजनक है। 2016 में विश्व व्यापार महज 1.3 फीसदी की दर से बढ़ रहा था।

निर्यात के मोर्चे पर देश का कमजोर प्रदर्शन दक्षिण एशिया के अन्य देशों से एकदम विरोधाभासी है। वे निर्यात के बल पर ही तरक्की कर रहे हैं। वियतनाम को रिकॉर्ड वृद्धि हासिल हो रही है। विडंबना यह है कि 2.5 लाख करोड़ डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना में 22,300 करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले वियतनाम की हालत में यह बेहतरी नीतिगत सुधारों की बदौलत आ रही है। भारत के निर्यात पर कर सुधारों के अव्यवस्थित क्रियान्वयन ने भी असर डाला है। नोटबंदी के तुरंत बाद सरकार ने 1 जुलाई, 2017 से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कर लागू कर दिया। उसने भी इसे प्रभावित किया। निर्यातकों द्वारा नई कर प्रणाली में पहला भुगतान करने के ठीक बाद अक्टूबर 2017 में निर्यात में गिरावट आई। यह नई व्यवस्था तकनीकी दिक्कतों और प्रक्रियागत विसंगतियों से ग्रस्त रही।

रिफंड में देरी तथा कार्यशील पूंजी के कम होने से निर्यातकों, खासतौर पर रोजगारोन्मुखी क्षेत्रों मसलन चमड़ा और वस्त्र निर्यातकों को विदेशी ग्राहकों को निपटाने में समस्या आने लगी और प्रतिद्वंद्वियों ने इसका लाभ उठाया। सरकार ने तत्काल प्रतिक्रिया दी और जीएसटी परिषद ने महीने के मध्य तक सारा रिफंड प्रोसेस करने का तय किया। हर निर्यातक के लिए एक ई-वॉलेट बनाने की घोषणा की गई और कहा गया कि कर क्रेडिट के लिए मामूली राशि जमा की जाएगी जिसे वास्तविक क्रेडिट रिफंड के समय समायोजित किया जाएगा। निर्यातकों को भी यह अनुमति दी गई कि वे इस फास्ट ट्रैक प्रक्रिया के अंग के रूप में ही जीएसटी रिफंड के दावों को पेश करें।

इनका नाटकीय लाभ हुआ और नवंबर में निर्यात में 30.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इससे संकेत मिला कि कारोबार जीएसटी से तालमेल बिठा रहे हैं। परंतु रिफंड की समस्या जनवरी में फिर उठ खड़ी हुई। प्लास्टिक एवं रसायन निर्यात परिषद ने दावा किया कि उनकी 18,000 करोड़ रुपये की राशि बकाया है। ऐसा तब है जबकि वे वैश्विक बाजार में भारत की 1.8 फीसदी की मामूली हिस्सेदारी को बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे अहम मुद्दे जब व्यापार सुविधा प्रक्रिया, निर्यात के कमजोर बुनियादी ढांचे और अधिमूल्यित रुपये से मिलते हैं तो समस्या बढ़ जाती है। इन्हें तुरंत हल करना होगा तभी भारत वैश्विक सुधार का लाभ ले सकेगा। संरक्षणवाद की बयार के बीच अवसर ज्यादा देर तक रहेगा भी नहीं।

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