School of Economics | *असमानता की नियति*
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*असमानता की नियति*

अब जब हम अपना 71वाँ स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं तो यह विचार करना समीचीन होगा कि एक देश के रूप में हमारी क्या उपलब्धियाँ हैं। इस प्रगति का आकलन करने का सबसे बेहतर उपाय यही हो सकता है कि हम इसका मिलान संविधान की उद्देशिका में घोषित सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता, सभी नागरिकों के लिये समानता और सभी में आपसी बंधुता की वस्तुस्थिति से करें। उद्देशिका के इस संकल्प में हमने कितनी प्रगति की है? हमारे संविधान ने हमें एक वास्तविक समतावादी समाज के सृजन में सहायता की होती, लेकिन सबके लिये समानता व न्याय सुनिश्चित करने में हमारा शासक अभिजात वर्ग बुरे तरीके से विफल रहा है। बीते दो दशकों में प्रभावशाली आर्थिक विकास के बावजूद असमानता व अन्याय व्यापक रूप से मौजूद हैं। विश्व बैंक के आकलन (2015) के अनुसार भारत की निर्धनता दर में कमी आई है, लेकिन यह आशाजनक नहीं है जब 172 मिलियन नागरिक अभी भी गरीबी रेखा के नीचे हैं और विश्व की निर्धन आबादी का करीब 24.5 प्रतिशत हैं।

हमारी नवउदारवादी प्रगति की स्थिति का आकलन इस तथ्य से किया जा सकता है कि भारत के 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश का 58 प्रतिशत धन है। हमारे समाज के लिये इससे बड़ा कलंक क्या हो सकता है कि कड़े कानूनों के बावजूद मैला ढोने का अभ्यास (Manual Scavenging) अब भी देश में जारी है। देश भर में 2.6 मिलियन सूखे शौचालय (ड्राई लैटरिन) हैं जिनकी मैनुअल सफाई की आवश्यकता होती है और सामाजिक व्यवस्था ने सभी धर्मों के अंदर इस घिनौने काम को दलितों पर थोप रखा है। इतना ही नहीं, इस कार्य में नियोजित दलितों की रक्षा के लिये विस्तृत कानून मौजूद हैं, लेकिन उनके विरुद्ध अन्याय में कमी नहीं आई है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अनुसार वर्ष 2015 में दलितों के विरुद्ध बलात्कार, हत्या और आगजनी जैसे 54,355 अपराध दर्ज हुए। वर्ष 2013 में ऐसे 39,408 मामले दर्ज हुए थे।
अन्याय व असमानता का एक अन्य अंध-क्षेत्र ग्रामीण भारत है जहाँ देश की 68 प्रतिशत आबादी रहती है। भारत वर्तमान में कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भर है। वह विश्व में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक, दूध का सबसे बड़ा उत्पादक, और फलों व सब्ज़ियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। देश के कृषकों ने हमें यह उपलब्धि दिलाई है। किन्तु हमारे यही अन्नदाता दुर्दशा के शिकार हैं और देश किसान आत्महत्याओं के एक विडंबनापूर्ण चक्र में फँसा हुआ है। वे एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था के शिकार हैं जहाँ भरपूर उत्पादन के बाद भी उचित लाभ की कोई गारंटी नहीं। बाज़ार के उतार-चढ़ाव से उनकी सुरक्षा के लिये हमारे पास उचित व्यवस्था नहीं, जहाँ सरकार का ध्यान जद्य मूल्य नियंत्रण पर उपभोक्ताओं के पक्ष में है और अन्न उत्पादकों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता। हमारा शासक वर्ग स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन के स्वप्न तो देखता है, लेकिन ग्रामीण भारत के बारे में नहीं सोचता जहाँ बुनियादी ढाँचे भी मौजूद नहीं हैं।
हमारे राष्ट्रनिर्माताओं ने एक जीवंत लोकतंत्र के निर्माण के लिये बंधुत्व को एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में रेखांकित किया था। श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “यह प्रभुत्वशाली समुदाय का उत्तरदायित्व है कि वह अपनी स्थिति का दुरुपयोग इस प्रकार न करे जो देश के धर्मनिरपेक्ष आदर्श को हानि पहुँचाए।” देश विभाजन के बाद हिन्दुओं व मुस्लिम में शत्रुता की भावना का प्रसार हुआ, लेकिन समय के साथ हम इससे पार आ गए। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध के बाद दोनों समुदायों के बीच पुनः संदेह व अविश्वास का माहौल बना और देश फिर मुसलमानों और उनकी जीवन शैली के विरुद्ध बहुसंख्यक आबादी के हमले देख रहा है। गौमांस खाने और गौकशी के संदेह में हत्या कर देने के मामले सामने आ रहे हैं। अविश्वास के इस माहौल का राजनीतिक फायदा उठाने से भी पार्टियाँ बाज नहीं आ रहीं और दोनों तरफ के अराजक तत्त्वों को उकसाया जा रहा है। यहाँ तक कि शैक्षणिक संस्थानों व सांस्कृतिक निकायों में भी नफरत का प्रसार हो रहा है और हम सार्वजनिक स्थानों पर भी सांप्रदायिकता की भावना देख रहे हैं। दोनों समुदायों के बीच बढ़ती यह सामाजिक दूरी देश के लिये आतंकवाद या पाकिस्तान से भी अधिक खतरनाक है।
लिंग असमानता की चरम स्थिति और विरोधियों के प्रति असहिष्णुता, इस गहन रूप से ध्रुवीकृत होते समाज की अन्य समस्याएँ हैं। अमेरिका में प्रभुत्वशाली व समृद्ध रहे श्वेत नस्लवादियों के बारे में महान अफ्रीकी-अमेरिकी उपन्यासकार जेम्स बाल्डविन ने लिखा था, “मैं नैतिक उदासीनता से डरता हूँ, संवेदनाओं की मृत्यु से जो इस देश में घटित हो रहा है।” देश को ह्रदय परिवर्तन की आवश्यकता है।

Source:‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख “Tryst With Inequality” का भावानुवाद।

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