प्रभात पटनायक
पिछली बार भारतीय अर्थव्यवस्था को 2013 में ही, आर्थिक वृद्धि के साथ कमोबेश लगातार जारी रही गरीबी में बढ़ोतरी से भिन्न, गंभीर वृहदार्थिक खलल या संकट का सामना करना पड़ा था। यह तब हुआ था जब रुपये के मूल्य में भारी गिरावट हुई थी। उसके बाद से देश को ऐसे किसी संकट का इसके बावजूद सामना नहीं करना पड़ा था कि वह लगातार चालू खाता घाटे की मार झेल रहा था। ऐसा दो विशेष कारणों से था। पहला, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम नीचे बने रहना, जिसने भारत के आयात बिल को और इसलिए चालू खाता घाटे को सीमित बनाए रखा था। दूसरा, वित्त का सुगम प्रवाह, जो अमेरिका में ब्याज की दरें घटाए जाने का परिणाम था। इसने विश्वीकृत वित्त के लिए इसे एक आकर्षक विकल्प बना दिया था कि अपने फंड भारत जैसे देशों की ओर मोड़े जाएं जहां अपेक्षाकृत ऊंचा ब्याज मिल रहा था।इसका अनुमान लगाने के लिए चतुराई की जरूरत नहीं थी कि यह स्थिति हमेशा चलती नहीं रह सकती थी। अमेरिका को भाड़े या ब्याज से कमाई करने वालों के हित में देर-सबेर अपनी ब्याज की दरें बढ़ानी ही थीं।
अमेरिका में ब्याज की दरों का उठना शुरू भी हो गया था, और उसके जोर पकड़ने पर भारत को वैसे भी भुगतान संकट का तो सामना करना ही था। लेकिन संकट के इस स्रेत के अपना असर दिखाने से भी पहले ही संकट का दूसरा स्रेत सामने आ गया। कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय दामों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए खतरा खड़ा हो गया है। अरसे से तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक में एक राय नहीं थी। सऊदी अरब दामों में गिरावट को पलटने के लिए तेल उत्पादन में किसी भी प्रकार की कटौती का विरोध करता आ रहा था। अन्य सदस्य देश चाहते थे कि यह कार्टेल उत्पादन को घटाए तथा कीमत ऊपर उठाए। लेकिन वे सऊदी अरब के विरोध की काट नहीं कर सकते थे। फिर हुआ यह कि तेल के घटे हुए दाम की मार खुद सऊदी अरब पर भी दिखाई देने लगी जो तेल की कमाई पर बहुत ज्यादा निर्भर है। इसलिए 2016 में सऊदी अरब ने अपना रुख बदल दिया। अब तेल के उत्पादन में कटौती करने का फैसला हो गया। इस निर्णय के पक्ष में रूस ने भी हामी भर दी जो एक और बड़ा तेल उत्पादक देश है।
कच्चे तेल के दाम आखिरकार कहां जाकर रुकते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन, कोईशक नहीं कि 2018 के दौरान, और 2019 के दौरान भी, कच्चे तेल के दाम में कोई गिरावट नहीं होने जा रही। इससे अन्य अनेक कच्चे मालों के दाम बढ़ेंगे और विश्व बाजार में तैयारशुदा मालों के दाम में उछाल आएगा। यह दबाव भारत में पहले ही देखा जा सकता है। यहां चूंकि सरकार ने बेतुका नियम बना रखा है कि आयातित तेल के दाम में किसी भी बढ़ोतरी का बोझ सीधे-सीधे आगे खिसका दिया जाए। इसके चलते मई के मध्य के बाद गुजरे सप्ताह में घरेलू बाजार में पेट्रोल तथा डीजल के दामों में भारी बढ़ोतरी हुई है। लेकिन दामों में बढ़ोतरी के मुद्रास्फीतिकारी परिणामों के अलावा भुगतान संतुलन की गंभीर समस्याएं भी पैदा होने जा रही हैं। अनुमान है कि ब्रेंट क्रूड के दाम बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल हो जाने से आयात बिल में 50 अरब डॉलर की बढ़ोतरी हो जाएगी। वास्तव में वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान जीडीपी के हिस्से के तौर पर चालू खाता घाटा बढ़कर 2.5 फीसद हो जाने का अनुमान है। बेशक, इससे अपने आप में फौरी तौर पर अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा खलल नहीं पड़ना चाहिए था बशत्रे पर्याप्त मात्रा में वित्तीय प्रवाह देश में आ रहे होते। लेकिन इसके संकेत दिखाई दे रहे हैं कि वित्त ने भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर से मुंह फेरना शुरू कर दिया है। रुपये का मूल्य गिर कर एक डॉलर के लिए 68 रुपये के स्तर पर पहुंच जाना इसी का सबूत है। याद रहे कि यह तब हो रहा है, जब रिजर्व बैंक रुपये को थामे रखने के लिए विदेशी मुद्रा का अपना खजाना खाली करता जा रहा है।
अब तक भारतीय अर्थव्यस्था में वित्त का प्रवाह इतना बना रहा था कि उससे न सिर्फ चालू खाता घाटे की भरपाई हो जाती थी, बल्कि चालू विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा भंडार में बढ़ोतरी भी हो रही थी। रिजर्व बैंक द्वारा विदेशी भंडार को बनाए रखने की कोशिश की जा रही थी ताकि रुपये की विनिमय दर में बढ़ोतरी के कारण विदेशी बाजार में भारत के प्रतिस्पर्धात्मकता पर चोट न आए। इसके चलते अब से कुछ ही महीने पर देश का विदेशी मुद्रा संचित भंडार 400 अरब डॉलर से ऊपर निकल गया था। लेकिन अब इसमें कुछ गिरावट आई है क्योंकि वित्तीय प्रवाह चालू खाता घाटे की भरपाई करने के लिए नाकाफी रह गए हैं। रुपये के अवमूल्यन के चलते ही कुल वित्तीय प्रवाह में और गिरावट होने जा रही है, और यह नकारात्मक भी हो सकती है यानी प्रवाह की दिशा पलट कर वित्त का बाहर जाना शुरू हो सकता है। इसलिए कि रुपये का अवमूल्यन, उसकी कीमत में और गिरावट की प्रत्याशा पैदा करता है। इसके दो कारण हैं। पहला, देश के सामने मौजूद भुगतान संत
ुलन की कठिनाइयों का लगातार बने रहना। दूसरा, मुद्रास्फीति का बढ़ना, जो इस समय देखने को मिल रहा है। यह रुपये के और ज्यादा वास्तविक अवमूल्यन की ओर ले जाएगा। रुपये का ऐसा वास्तविक अवमूल्यन, और ज्यादा अवमूल्यन की प्रत्याशा तथा और ज्यादा वास्तविक उन्मूलन के दुष्चक्र में धकेल रहा होगा। लेकिन चूंकि रुपये के अवमूल्यन से तेल का रुपया आयात मूल्य तो विश्व बाजार में कच्चे तेल का मूल्य 80 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर टिक जाने के बावजूद बढ़ ही रहा होगा, तेल की बढ़ी हुई आयात लागत फौरन खरीददारों की ओर ‘‘आगे बढ़ाने’ की सरकार की मौजूदा नीति से मुद्रास्फीति लगातार चल रही होगी।
मुद्रास्फीति का ऐसे जारी रहना इसका अतिरिक्त कारण बन जाएगा कि अवमूल्यन की प्रत्याशाएं और उनके जरिए वास्तविक अवमूल्यन पैदा करे। इस तरह की प्रत्याशाएं असर दिखाती हैं, जो अर्थव्यवस्थाएं कमजोर स्थिति में होती हैं, इनके दुष्चक्र में फंस जाती हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था, अपनी प्रकटत: ऊंची वृद्धि दर के बावजूद मूलत: एक कमजोर अर्थव्यवस्था ही बनी रही है क्योंकि यह अपने भुगतान संतुलन को संभालने के लिए सट्टेबाजाराना वित्त के प्रवाहों पर नाजुक ढंग से निर्भर बनी रही है। अब उसके सामने ऐसे दुष्चक्र का खतरा ही आ खड़ा हुआ है।