विश्व के सभी देशों द्वारा की जा रही औद्योगिक गतिविधियों के कारण विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बहुत तेज गति से बढ़ रहा है इसी कारण पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि होती जा रही है. तापमान की इस वृद्धि में सबसे ज्यादा योगदान कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का है.
कार्बन का उत्सर्जन उन देशों के ज्यादा होता है जहाँ पर औद्योगिक गतिविधियाँ ज्यादा होतीं है. इसी कारण विकसित देशों द्वारा कार्बन का ज्यादा उत्सर्जन किया जाता है. क्योटो प्रोटोकोल एक ऐसी ही संधि है जो कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए विश्व के विकसित और विकासशील देशों को बाध्य करती है.
इन ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिए एक ऐसा तंत्र भी विकसित करना जरूरी था जो इन गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित कर सके. इसके लिए यूनाईटेड नेशनस फ्रेमवर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) ने मापदंड एवं मानदंड निर्धारण किये जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ का अंग है.
कार्बन ट्रेडिंग किसे कहते हैं?
कार्बन क्रेडिट अंतर्राष्ट्रीय उद्योग में कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की योजना है. कार्बन क्रेडिट सही मायने में किसी देश द्वारा किये गये कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का प्रयास है जिसे प्रोत्साहित करने के लिए मुद्रा से जोड़ दिया गया है. कार्बन डाइआक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए क्योटो संधि में एक तरीक़ा सुझाया गया है जिसे कार्बन ट्रेडिंग कहते हैं. अर्थात कार्बन ट्रेडिंग से सीधा मतलब है कार्बन डाइऑक्साइड का व्यापार.
विकसित और विकासशील देशों के बीच क्या अंतर होता है?
क्योटो प्रोटोकॉल में प्रदूषण कम करने के दो तरीके सुझाए गए थे. इस कमी को कार्बन क्रेडिट की यूनिट में नापा जाना था.
इन तरीकों में पहला था कि विकसित देश कम प्रदूषण फ़ैलाने वाली तकनीकी को विकसित करने में पैसे लगाएं या फिर, बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीद लें. मतलब अगर विकसित देशों की कंपनियां खुद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न ला सकें तो विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद लें. चूंकि भारत और चीन जैसे देश में इन गैसों का उत्सर्जन कम होता है इसलिए यहां कार्बन क्रेडिट का बाजार काफी बड़ा है.
कार्बन क्रेडिट पाने के लिए कंपनियां ऐसे प्रोजेक्ट लगाती हैं जिनसे हवा में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइड में कमी आए या फिर कम प्रदूषण फ़ैलाने वाली तकनीकी के माध्यम से अपनी औद्योगिक गतिविधियाँ जारी रखें.
कार्बन ट्रेडिंग कैसे होती है ?
इस व्यापार में प्रत्येक देश या उसके अन्दर मौजूद विभिन्न सेक्टर जैसे ऑटोमोबाइल, टेक्सटाइल, खिलौना उद्योग या किसी विशेष कम्पनी को एक निश्चित मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करने की सीमा निर्धारित कर दी जाती है. यदि किसी देश ने अधिक औद्योगिक कार्य करके अपनी निर्धारित सीमा (cap and trade) का कार्बन उत्सर्जित कर लिया है और उत्पादन कार्य जारी रखना चाहता है तो वह किसी ऐसे देश से कार्बन को खरीद सकता है जिसने अपनी सीमा का आवंटित कार्बन उत्सर्जित नही किया है. हर देश को कार्बन उत्सर्जन की सीमा का आवंटन (cap and trade) यूनाईटेड नेशनस फ्रेम वर्क कनेक्शन आन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा किया जाता है.
ऐसा ही कार्बन व्यापार किसी देश की सीमा में स्थित कंपनी करती है. कार्बन ट्रेडिंग का बाजार मांग और पूर्ती के नियम पर चलता है. जिसको जरुरत है वो खरीद सकता है और जिसको बेचना है वो बेच सकता है.
उदाहरण के लिए ब्रिटेन, भारत में कोयले की जगह सौर ऊर्जा की कोई परियोजना शुरु करे. इससे कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम होगा जिसे आंका जाएगा और फिर उसका मुनाफ़ा ब्रिटेन को मिलेगा.
कार्बन क्रेडिट का बाजार कितना बड़ा है?
पिछले कुछ वर्षों में क्रेडिट का वैश्विक व्यापार लगभग 6 बिलियन डॉलर अनुमानित किया गया था जिसमें भारत का योगदान लगभग 22 से 25 प्रतिशत होने का अनुमान है. भारत और चीन दोनों देशों ने कार्बन उत्सर्जन को निर्धारित मानदंडों से नीचे रखकर कार्बन क्रेडिट यूनिट्स जमा किये हैं. भारत ने लगभग 30 मिलियन क्रेडिटस जमा किये हैं और आने वाले समय में संभवत: 140 मिलियन क्रेडिटस और तैयार हो जायेंगे जिन्हें विश्व बाजार में बेचकर पैसा कमाया जा सकता है. एक कार्बन यूनिट एक टन कार्बन के बराबर होता है.
एक अनुमान के अनुसार 2017 तक कार्बन ट्रेडिंग से कम से कम 150 अरब डॉलर कमाए जा सकते हैं और अगर भारत चाहे, तो खाली पड़ी 15 लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर इस धंधे से अच्छी कमाई कर सकता है. विशेषज्ञों के अनुसार एक लाख हेक्टेयर भूमि पर पेड़ लगाकर वातावरण से हर साल 10 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखी जा सकती है.
इस प्रकार आपने पढ़ा कि किस प्रकार कार्बन ट्रेडिंग का बाजार ग्रीन हाउस “गैस कार्बन डाई ऑक्साइड” के उत्सर्जन में कमी लाकर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में योगदान दे रहा है.