कप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एससीओ सम्मेलन में आपसी सहयोग बढ़ाने का मंत्र दिया, वहीं चीन से अहम करार भी किए।

डॉ. रहीस सिंह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों चीन के क्विंगदाओं में संपन्न् शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के 18वें शिखर सम्मेलन में शिरकत करने के साथ-साथ एससीओ देशों के राष्ट्राध्यक्षों/सरकार प्रमुखों से द्विपक्षीय बातचीत भी की, जिसमें मेजबान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी बैठक सर्वाधिक अहम रही। हालांकि पाकिस्तान के राष्ट्रपति से मोदी ने केवल हाथ ही मिलाया, बातचीत नहीं की जो इस बात का संकेत था कि अभी उसके साथ अच्छे रिश्तों की संभावनाएं नहीं हैं। बहरहाल, इस संदर्भ में अहम बात यह है कि पिछले कई दिनों के कवरेज में वैश्विक मीडिया ने क्विंगदाओ को क्यूबेक से कहीं अधिक महत्व दिया, जबकि क्यूबेक में विकसित देशों (यानी जी7) की शिखर बैठक हो रही थी और क्विंगदाओ में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ विकासशील देशों की। हालांकि वैश्विक मीडिया के एक वर्ग ने एससीओ सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उपस्थिति को ग्लोरिफाई करने की कोशिश की और यह संदेश भी प्रसारित किया कि ये दोनों नेता शंघाई सहयोग संगठन के जरिए दुनिया के लिए नैरेटिव तैयार करने के साथ-साथ ‘एशियाई धुरी नीति को व्यवहारिक रूप देना चाह रहे हैं, जिसका मुख्य फोकस अफगानिस्तान और पाकिस्तान होगा।

सच क्या है, इसका अनुमान कुछ तथ्यों के आधार पर लगाया जा सकता है। पहली बात तो यह कि दक्षिण एशियाई देश धीरे-धीरे के भारत के प्रभाव-क्षेत्र सेबाहर होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में चीन-रूस ‘एशियाई धुरी या ‘दक्षिण एशियाई धुरी नीति को आगे बढ़ा सकते हैं। लेकिन भारत अब इतना कमजोर नहीं है कि बीजिंग-मास्को उसे नजरअंदाज करते हुए अपनी रणनीति में सफल हो जाएं। इसलिए उन्हें यदि सफल होना है तो भारत को साथ लेकर चलना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्विंगदाओ में इस दृष्टि से स्पष्ट संदेश भी दे दिया है। उम्मीद है, चीन और रूस के साथ पाकिस्तान भी यह बात समझ गया होगा। प्रधानमंत्री मोदी की क्विंगदाओ यात्रा के दो परिप्रेक्ष्य हैं- बहुपक्षीय और द्विपक्षीय। पहला, एससीओ के जरिए यूरेशिया देशों को अपने उद्देश्यों से परिचित कराना और दूसरा, चीन के साथ वुहान से क्विंगदाओ तक के सफर के हासिल सुनिश्चित करना। क्विंगदाओ एससीओ सम्मेलन में दो बड़ी बातें निकलकर सामने आईं। प्रधानमंत्री मोदी ने एससीओ के मंच से ‘सिक्योर कॉन्सेप्ट के रूप में सदस्य देशों को नागरिकों की सुरक्षा, आर्थिक विकास, क्षेत्रीय जुड़ाव, एकता, राष्ट्रों की संप्रभुता व अखंडता का सम्मान और पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया।

इसके साथ ही उन्होंने चीन के महत्वाकांक्षी ‘वन बेल्ट वन रोडप्रोजेक्ट पर एक बार फिर अडिग रुख का परिचय देते हुए इसे समर्थन देने से इनकार कर दिया। एससीओ के मंच से उन्होंने बेलाग कहा कि देशों को जोड़ने वाली संपर्क परियोजनाएं ऐसी हों, जो विभिन्न् देशों की संप्रभुता व अखंडता का सम्मान करें। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में अफगानिस्तान को केंद्र में रखकर पाकिस्तान पर परोक्ष निशाना साधा। उन्होंने अफगानिस्तान को आतंकवाद का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण माना। सभी जानते हैं कि अफगानिस्तान की दुर्दशा का मूल कारण पाकिस्तान है। चूंकि पिछले काफी समय से मास्को, बीजिंग और इस्लामाबाद एक त्रिगुट निर्मित करने की आगे बढ़ रहे हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री का यह संदेश परोक्ष रूप से बीजिंग व मास्को के लिए भी था। अस्ताना में पिछले वर्ष एससीओ शिखर सम्मलेन में चीनी अधिकारियों ने दोनों नए सदस्य देशों भारत और पाकिस्तान को बता दिया था कि इन्हें एससीओ चार्टर के अनुच्छेद 1 में उल्लिखित ‘अच्छे पड़ोसी की भावना का सख्ती से पालन करना होगा। यही वजह है कि भारत और पाकिस्तान की सैन्य टुकड़ियां चीन में ‘फैनफेयर फॉर पीस मिलिट्री टैट्टू और ‘पीस मिशन 2018 में हिस्सा लेंगी। ‘पीस मिशन 2018 आतंकवाद-रोधी संयुक्त सैन्याभ्यास है। अब जबकि भारत बार-बार कहता है कि पाकिस्तान आतंकवाद को संरक्षण दे रहा है और हमारे खिलाफ खिलाफ छद्म-युद्ध लड़ रहा है, तब वह इन विरोधाभासों से कैसे निपटेगा?

फिर भी यह तो कहना होगा कि शंघाई सहयोग संगठन से जुड़ जाने के बाद भारत की यूरेशियाई अर्थव्यवस्था तक पहुंच सुनिश्चित हो गई है। यह संगठन सदस्य देशों के बीच आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी, साइबर सुरक्षा के खतरों आदि पर महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी को साझा करने के साथ-साथ आतंकरोधी संयुक्त सैन्याभ्यास पर भी जोर देता है, इसलिए भारत को इसके जरिए आतंकवाद से लड़ने में सहयोग मिलना चाहिए। संभव है कि उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान के साथ संपर्क स्थापित कर चाबहार प्रोजेक्ट के जरिए भारत इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को यूरेशिया तक पहुंचाए, जैसा कि अश्गाबात करार से दिखने भी लगा है। अश्गाबात करार के बाद उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की कनेक्टिविटी का मार्ग प्रशस्त हो गया है। इस प्रकार की विकास परियोजना चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड को काउंटर करने में सहायक होगी।

इसके साथ ही इस सम्मेलन से इतर प्रधानमंत्री मोदी व चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग की मुलाकात हुई और वार्ता के बाद चीन की ओर से भारत को ब्रह्मपुत्र नदी के बारे में जल संबंधी सूचनाएं साझा करने और भारत से चीन को गैर-बासमती चावल निर्यात संबंधी सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किए गए। गौरतलब है कि पिछले साल डोकलाम विवाद उभरने के बाद चीन ने नदी संबंधी जानकारी साझा करना बंद कर दिया था। अब इसकी राह फिर खुल गई है। वहीं गैर-बासमती चावल को मंजूरी मिलने से भारत का कृषि निर्यात बढ़ेगा और व्यापार अंसतुलन कम करने में मदद मिलेगी। जहां तक भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार का संबंध है तो 2020 तक इसे 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने की बात हो रही है। दरअसल चीन और अमेरिका के बीच इस समय ट्रेड वॉर चल रहा है। ऐसे में चीन को एशियाई बाजारों की जरूरत होगी और भारत उनमें सबसे ऊपर है। इसलिए चीन के भारत की ओर झुकाव का कारण तो बनता है। लेकिन जहां केंद्र में ऐसे भारतीय हित आएंगे, जिनका चीनी हितों से टकराव हो, वहां चीन यू-टर्न भी ले सकता है। फिलहाल शंघाई सहयोग संगठन में भारत के लिए बहुत-सी संभावनाएं हैं, तो कुछ विरोधाभासी स्थितियां भी हैं। लिहाजा इस संगठन में भारत की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह इन दोनों चीजों में किस तरह संतुलन बनाकर चल पाता है।

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