विश्व की दूसरी बड़ी आबादी वाले देश भारत की जनसंख्या की खाद्य और पोषण आवश्यकताओं की पूर्ति करने की दृष्टि से भारतीय कृषि विशेष महत्ता रखती है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था, मानव-बसावट तथा यहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे एवं स्वरूप की आधारशिला बनी हुई है। यह प्रमुख रोज़गार प्रदाता क्षेत्र है। कृषि के माध्यम से खाद्यान्न तो उपलब्ध होता ही है, साथ ही अनेक प्रमुख उद्योगों के लिये कच्चा माल भी उपलब्ध होता है।
भारत ने खाद्य उत्पादन और निर्यात क्षेत्र में पिछले कई दशकों में उल्लेखनीय प्रगति की है। दूध, गन्ना, काजू और मसालों के उत्पादन के मामले में भारत पहले स्थान पर है, जबकि चावल, गेहूँ, दलहन, फल (ब्राज़ील के बाद) और सब्ज़ियों (चीन के बाद) का यह दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
भारत में खाद्य उत्पादन की प्रवृत्ति-
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक खाद्य उत्पादन कई गुना बढ़ चुका है। खाद्य उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि 1967-68 के दौरान हुई हरित क्रांति के बाद दर्ज हो सकी।
भौतिक संरचना, जलवायविक एवं मृदा सबंधी विविधताएँ आदि ऐसे कारक हैं, जो अनेक प्रकार की फसलों की कृषि को प्रोत्साहित करते हैं।
भारतीय कृषि अब भी निर्वाह कृषि का ही रूप है, क्योंकि ज़्यादातर कृषकों के लिये यह आजीवका का एकमात्र साधन है। भारतीय कृषि ने अब तक उद्योग का दर्जा प्राप्त नहीं किया है।
पूर्वी भारत चावल, तो मध्य भारत तिलहन, दलहन व गेहूँ की पैदावार के लिये प्रमुख क्षेत्र हैं। सिंचाई साधनों के विस्तार ने कम वर्षा वाले क्षेत्रों, जैसे-हरियाणा और पंजाब में भी चावल की पैदावार को संभव बनाया है।
भारतीय कृषि मानसून के प्रति अतिसंवेदनशील है। सही समय पर मानसून आने का अर्थ अच्छी फसल का होना है। यदि मानसून सही समय पर नहीं आता है तो फसल उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होता है।
आज भी भारत में प्रति हेक्टेयर भूमि में उत्पादन का स्तर बहुत ही न्यून है। भारतीय कृषि की महत्त्वपूर्ण विशेषता जोत इकाइयों की अधिकता एवं उनके आकार का कम होना है
लंबी तटरेखा की मौजूदगी के कारण तटीय क्षेत्रों में मछलियाँ व अन्य समुद्री खाद्य पदार्थ पोषण का महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
विपणन और भंडारण सुविधाओं की कमी के चलते प्रतिवर्ष बड़ी मात्रा में खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है।
भारत में खाद्य उपभोग की प्रवृत्ति-
लोगों की आय में वृद्धि के साथ ही खाद्य पदार्थों की मांग में भी वृद्धि हुई है।
वैश्वीकरण ने भारत के लोगों की खाद्य-आदतों को भी प्रभावित किया है। भोजन में विविधता के साथ-साथ भारतीय लोगों में फास्टफूड और प्रोसेस्ड फूड का चलन बढ़ा है।
श्वेत क्रांति के बाद दूध तथा दुग्ध-उत्पादों की उपलब्धता में वृद्धि हुई, जिसके कारण आज शहरी क्षेत्रों में घी, मक्खन, पनीर आदि दुग्ध-उत्पादों के उपभोग में भारी वृद्धि हुई है।
हाइड्रोजनीकृत वसा (वनस्पति घी) और ट्रांस-फैट से बने बेकरी उत्पादों के उपभोग में वृद्धि ने हृदय सबंधी विकार और इन्सुलिन प्रतिरोध जैसी स्वास्थ्य परेशानियाँ खड़ी कर दी हैं।
खाद्य सुरक्षा को लेकर भारत ने हमेशा से ही गंभीरता दिखाई है। हरित क्रांति, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अंत्योदय योजना, अन्नपूर्णा योजना और खाद्य सुरक्षा कानून इस दिशा में उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदम हैं। इन सबके बावजूद खाद्य सुरक्षा को लेकर भारत में कई प्रकार की चुनौतियाँ मौजूद हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-
हरित क्रांति ने जहाँ उत्पादन में मात्रात्मक वृद्धि की, वहीं अत्यधिक सिंचाई और रासायनिक खाद के प्रयोग ने मृदा की उर्वरता को गंभीर क्षति पहुँचाई है। वर्तमान में इसका प्रभाव उत्पादन पर पड़ रहा है।
प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखे और बाढ़ की पुनरावृत्ति ने भी फसलोत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है।
जलवायु परिवर्तन से कृषि उत्पादकता काफी तेज़ी से घट सकती है, साथ ही अनाज में प्रोटीन की मात्रा भी कम हो सकती है। इसलिये खेती की नई किस्मों को खोजने की चुनौती सबसे बड़ी है जिनसे उत्पादन ज़्यादा हो, साथ ही इसमें सिंचाई और उर्वरकों की ज़रूरत कम पड़े।
खाद्यान्नों के संग्रहण, परिवहन और भंडारण के लिये उचित अवसंरचना तथा कारगर तंत्र की ज़रुरत अब भी बनी हुई है।
कृषि भूमि के क्षेत्र तथा कृषिगत आय में कमी से भी भारत की खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंताएँ व्याप्त हैं।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख है। तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या, बढ़ते खाद्य मूल्य और जलवायु परिवर्तन