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*चर्चा में क्यों?*

हाल ही में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के सांस्कृतिक संगठन यूनेस्को से हटने की घोषणा की है। अमेरिका ने इसकी वज़ह यूनेस्को द्वारा इज़राइल विरोधी रुख अपनाया जाना बताया है। इसके अलावा अमेरिका ने संगठन के बढ़ते हुए आर्थिक बोझ को लेकर भी चिंता जताई है।
विदित हो कि इज़राइल ने अमेरिका के इस फ़ैसले को ‘बहादुरी और नैतिकता भरा’ करार दिया है और स्वयं के भी यूनेस्को छोड़ने की घोषणा की है।
यूनेस्को को दुनिया भर में विश्व धरोहर स्थल चुनने के लिये जाना जाता है। यह एक बहुपक्षीय संस्था है जो शिक्षा और विकास से जुड़े लक्ष्यों के लिये काम करती है।

*क्यों छोड़ा अमेरिका ने यूनेस्को?*

विशेषज्ञों का मानना है कि ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ और बहुपक्षीय संगठन विरोधी नीति के कारण ही अमेरिका इस तरह के फैसले ले रहा है।
हालाँकि, इस मामले में विवाद का असली कारण संगठन का कथित इज़राइल-विरोधी रवैया माना जा रहा है।
हाल ही में यूनेस्को ने वेस्ट बैंक और पूर्वी यरूशलम में इज़राइल की गतिविधियों की आलोचना की थी, साथ ही इसी वर्ष यूनेस्को ने पुराने हिब्रू शहर को फलिस्तीन के विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी थी।
गौरतलब है कि वर्ष 2011 में यूनेस्को ने फलिस्तीन को पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर मान्यता दी थी और ऐसा करने वाला वह संयुक्त राष्ट्र का पहला अंग है और तब अमेरिका ने अपनी फडिंग में कटौती कर दी थी।

*क्या है ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट की नीति?*

डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा देकर ही सत्ता में आए हैं। इस नीति के दो आधार हैं- व्यावहारिक और वैचारिक।
व्यावहारिक तौर पर ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति का मानना है कि प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता में अगर अमेरिका ने कुछ पाया है तो कुछ खोया भी है, लेकिन अब वह समय आ गया है कि अमेरिका को किसी भी प्रकार की नैतिक ज़िम्मेदारी का बोझ उठाने की ज़रुरत नहीं है।
मसलन, लोकतंत्र, मानवाधिकार और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने में अब तक अमेरिका आगे बढ़कर ज़िम्मेदारियाँ उठाता रहा है, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति में इन सभी बातों के लिये अब कोई जगह नहीं है।
अमेरिका फर्स्ट के वैचारिक पक्ष की बात करें तो ट्रंप का मानना है कि जूदेव ईसाई सभ्यता (जेविश और ईसाई सभ्यता) के अस्तित्व पर ही संकट है और इस संकट का कारण इस्लाम है। अतः इस संबंध में समान हित वाले देशों से साझेदारियाँ बनाने की ज़रूरत है।

*निष्कर्ष*

अमेरिका के इस कदम के कारण पहले से ही फंड की कमी से जूझ रहे यूनेस्को की परेशानियाँ और बढ़ सकती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सदभावना, विश्व मैत्री तथा विश्व-बन्धुत्त्व को बढ़ावा देने में यूनेस्को की महत्ती भूमिका रही है। इन कार्यों को अंजाम देने के लिये बड़े स्तर पर फण्ड की भी ज़रूरत होती है।
अब जब अमेरिका इसका सदस्य नहीं रहेगा तो ज़ाहिर है फण्ड की कमी होगी, जिससे इस संगठन की कार्यक्षमता पर भी असर पड़ेगा। अमेरिका का यूनेस्को से हटने का निर्णय दिसंबर 2018 में प्रभाव में आएगा। तब तक वह इसका पूर्ण सदस्य बना रहेगा।

*स्रोत: द हिंदू*

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