रुपया : चिंता न करें गिरावट की

(अनिल उपाध्याय)

तेज़ी से बदलती भारतीय ढांचागत व्यवस्था एवं उच्चतम स्तर के रिर्चव आज की समस्या को अलग तरीके से देखे जाने के लिए बाध्य करते हैं। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि बिना स्ट्रेटैजिक डीवैल्यूएशन के निर्यात को लाभ होने वाला नहीं। वे भूल जाते हैं कि भारत आज वह भारत नहीं रहा जिसे इस समस्या के समाधान के लिए विदेशी स्रेतों से ऋण लेना पड़े। ऐसे सुझाव देने वाले टर्की से सबक लेने से उलट उसी गलती को करने की ओर उकसाते नजर आते हैं। आज ढांचागत सुधारों की वजह से निर्यातोन्मुख सामान की ढुलाई में कम समय लग रहा है।

‘‘एक देश एक टैक्स’ की तरफ बढ़ते देश को होने वाले लाभ धीरे-धीरे निर्यात में भी दृष्टिगोचर होंगे। रुपये की गिरावट इस सुखद चक्र को गति देगी। समझना चाहिए कि हमारी करेंसी रुपया है। अमेरिकी डॉलर नहीं है। किसी देश में करेंसी की कमजोरी मुद्रास्फीति से आती है तो चिंता का विषय है। मुद्रास्फीति नियंतण्रमें हो और उसके नियंतण्रसे बाहर जाने की संभावना भी क्षीण हो तो घबराने की जरूरत ही नहीं है। क्या अमेरिकी डॉलर को अपने बल पर आगे बढ़ने का हक नहीं है?

इस समय बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है। रुपये के मुकाबले अमेरिकी डॉलर बढ़ रहा है। इस समय रुपया नहीं लुढ़क रहा है, बल्कि अमेरिकी डॉलर मजबूत हो रहा है। यह समायोजन है। इसके कारण अंतरराष्ट्रीय हैं। ट्रंप द्वारा ट्रेड वॉर के संकेत भी हैं। इस कारण विश्व व्यापार में रीबैलेंसिंग हो रही है। फौरी तौर पर ‘‘टर्किश लिरा’ का गिरना एक कारण है। मगर असली दीर्घावधि कारण यह है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने बुरे दौर से बाहर आ रही है। सो, स्वाभाविक है कि अमेरिकी डॉलर आस्तियों की मांग बढ़े और मांग बढ़ेगी तो डॉलर की कीमत भी बढ़ेगी। फिलहाल वही हो भी रहा है।हमारा दुर्भाग्य है कि हम हर मुद्दे को राजनैतिक मुद्दा बनाने का हुनर जानते हैं। मुद्रा और विदेश व्यापार के नाजुक मसलों पर भी बिना जाने, बिना जांचे-परखे टिप्पणियां होने लगती हैं।

चीन दशकों से अपनी मुद्रा को कृत्रिम रूप से कमजोर रखकर मजबूत हुआ है। ध्यान देने योग्य बात है कि कमजोरी कहीं-कहीं मजबूती भी लाती है। चीन का तो सारा व्यापारिक अस्तित्व ही युआन की कमजोरी पर टिका है। भारत में निर्यात क्षेत्र सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है। चीन से हमें इस क्षेत्र में काफी स्पर्धा का सामना करना पड़ता है। क्या हम सिर्फ सस्ते पेट्रोल और विदेशी निवेशकों के हित में अपनी मुद्रा मजबूत रखते रहें? नहीं, इसे नैसर्गिक रूप से घटने-बढ़ने देना चाहिए। 2017 में भारतीय रुपया ने लगभग 6 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की थी। 2018 में अब तक इसमें लगभग दस प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है। सामान्य स्तर पर समझने के लिए चाहें तो कह लें कि निर्यात हेतु हमारा सामान 2017 में 6 प्रतिशत सस्ता बिकता था, अब 10 प्रतिशत महंगा बिकेगा।

हालांकि हम जानते हैं कि व्यापार अन्य मुद्राओं में भी होता है, और उनमें भी गिरावट दर्ज हुई है। यह कथन मोटे तौर पर इशारा भर मात्र है। अमेरिकी डॉलर के सामने भारतीय रुपये की गिरावट से अधिक चिंता का विषय कच्चे तेल की बढ़ती कीमतें हैं। टर्की या अज्रेटीना में क्या हो रहा है, इससे हमारे ऊपर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ना। अधिक चिंता कच्चे तेल के अलावा चीन के युआन और ईरान अमेरिका के बीच तनाव की है। ईरान के प्रति अमेरिका का जरा सा भी नरम रुख कच्चे तेल की कीमतों में काफी गिरावट ला सकता है। ऐसी स्थिति में हम भविष्य में बड़ी ताकत के रूप में उभर सकेंगे। कुछ विशेषज्ञों ने राय जाहिर की है कि ईरान के पास तेल के भंडार सऊदी अरब से ज्यादा हैं। यह एक जोखिम भी है, और अवसर भी। भारत ने अपने ईरान संबंधों को निपुणता से निभाया है। चीन से बढ़ता अमेरिकी तनाव इस मामले में लाभप्रद रहेगा क्योंकि अमेरिका को अपनी शक्ति यूरोप में भी लगानी पड़ रही है। वह यूरो को तोड़ने की साजिशें कर रहा है। इधर चीन से संबंध बिगड़े हुए हैं।

ईरान से भी टकराव संभावित है। ऐसे में भारत की स्थिति काफी मजबूत होगी। रुपये को संभालने के लिए हमारे पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा रिजर्व हैं। वह भी तब है जबकि2018 में हमारी रैंकिंग घटी है। अब हम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हेतु शीर्ष दस देशों में शुमार नहीं हैं। अत्यधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं पोर्टफोलियो निवेश से आई विदेशी मुद्रा भी कभी-कभी सरदर्द बन जाती है। जापान ने दशकों इस समस्या को झेला। कभी-कभी इसलिए इस तरह की गिरावट भी कहीं न कहीं छुपा हुआ वरदान ही साबित होती है। रुपये की गिरावट हमारी अर्थव्यवस्था के कारण हुई होती तो स्टॉक मार्किट नकारात्मक संकेत देती।

रुपये की गिरावट से किंचित मात्र भी चिंतित होने की जरूरत नहीं है। अर्थव्यवस्था परिपक्वता दिखा रही है। ध्यान रखें कि भारतीय रुपया पूर्णत: परिवर्तित करेंसी नहीं है। अभी पर्याप्त कंट्रोल विदेशी मुद्रा लेन-देन में विद्यमान हैं, और इसके बावजूद सुखद स्थिति है कि हमारे रिजर्व सम्मानजनक स्थिति में हैं। हम अच्छे से मुद्रा बाजार की उठापटक को संभाल सकते हैं। हमारे एक्सटर्नल ऋणों का मात्र 19 प्रतिशत ही कम अवधि का है। उसे चुकाने में हम सक्षम हैं। भारत ‘‘इमर्जिंग मार्केट्स’ में सुरक्षित निवेश का स्थान बना हुआ है। हमने हाल में बिजनेस को आसान बनाने के कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। जैसे ‘‘जीएसटी’ एवं ‘‘आईबीसी’। ये लंबी अवधि के ऐतिहासिक उपाय हैं।

इनके समुचित नतीजे भविष्य में आने हैं। इन सब बातों के कह दिए जाने के उपरांत हमें सावधानी रखनी होगी क्योंकि चीन की मुद्रा का अवमूल्यन बहुत बड़ा खतरा है, जो कभी भी उजागर हो सकता है। कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे। कैपिटल कंट्रोल को और उदार करना, निर्यातोन्मुख नीतियों को लागू करना, निर्यातकों के लिए और अधिक सुविधाएं मुहैया कराना, ‘‘बॉयर्स क्रेडिट’ पर मूर्खतापूर्ण रोक को वापस लेना एवं एनआरआई निवेशकों के लिए निवेश को अधिकसरल बनाना इत्यादि कुछ कदम उठाए जरूरी हैं। जल्द ही रुपया अपनी ताकत के बल पर, जो सिर्फ इसलिए खत्म नहीं हो जाएगी कि कुछ लोग ऐसा बोलते हैं, और लिखते हैं, फिर से मजबूत होगा। पिछले अनुभवों के आधार पर भविष्यवाणी के दिन अब नहीं रहे। अब चीन मुक्त व्यापार और अमेरिका संरक्षणवाद का पक्षधर है। लिखने वाले भी शीर्षासन करें और नजरिया बदल कर भारत को देखें।(RS)

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