मुकेश असीम

साल 2018 का अन्त इन ख़बरों के साथ हुआ है कि विश्व पूँजीवाद के निरन्तर जारी आर्थिक संकट में तेज़ी व ध्वंस का एक और दौर आने ही वाला है। साथ ही, पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की धुरी भी अब पूरब की ओर बढ़ रही है। जहाँ पिछली बार संकट की गहनता का मुख्य केन्द्र यूरोप-अमेरिका के विकसित पूँजीवादी देश ही थे और चीन-भारत आदि जैसे पूँजीवादी देशों पर इसका असर कुछ हद तक सीमित था, इस बार चीन-भारत जैसे देश भी वैश्विक संकट की तीव्रता का बुरी तरह से शिकार होते नज़र आ रहे हैं। चीन में कारों से लेकर आई-फ़ोन तक की बिक्री में पहले ही इतनी गिरावट आ चुकी है कि वहाँ बिक्री करने वाली दुनिया-भर की कम्पनियों में श्रमिकों की छँटनी और उनके शेयर दामों में गिरावट की ख़बरें अभी से आने लगी हैं।

यही वजह है कि विश्व-भर के शेयर बाज़ार आसन्न मन्दी की आहट से काँपने लगे हैं। अमरीकी एसएण्डपी500 सूचकांक 21 सितम्बर 2018 की ऊँचाई से 20% तक गिर चुका है। महीने में 14.82% की गिरावट से दिसम्बर 2018 इसका अक्टूबर 2008 के वित्तीय संकट के वक़्त से सबसे खराब महीना था, जब यह 16.94% गिरा था। लन्दन का स्टॉक्स यूरोप 600 भी पिछले वर्ष में 14% नीचे गिरा है। जापान का निक्केई 225 भी अक्टूबर 2018 के बाद से 21% नीचे है। चीनी शेयर बाज़ार भी अब 2014 के बाद के अपने निम्नतम स्तर पर है। आसन्न मन्दी की इसी आहट की वजह से ही विश्व बाज़ार में क्रूड की माँग और दाम गिरने लगे हैं। भारत की स्थिति देखें तो ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक बाज़ार में बढ़ते संकट की वजह से विदेशी निवेशक संस्थान पिछले पूरे साल भारतीय शेयर बाज़ार से पैसा निकालते रहे, लेकिन बाज़ार को सँभालने हेतु घरेलू संस्थान उससे चार गुना पैसा बाज़ार में झोंकते रहे। फिर भी सेंसेक्स 34 व 35 हज़ार के बीच अटक गया है और सारी कोशिशों के बावजूद ऊपर नहीं उठ पा रहा। ऐन चुनाव के पहले इस संकट को किसी तरह टालने के वास्ते मोदी सरकार रिज़र्व बैंक से लेकर एलआईसी, एसबीआई, वग़ैरह सारे सरकारी तन्त्र को शेयर बाज़ार सँभालने में झोंके हुए है, मीडिया में कोई नकारात्मक रिपोर्ट मुश्किल से ही आने पाती है, फिर भी सेंसेक्स अगस्त की ऊँचाई से 9% नीचे चला गया है। कितनी ही नक़दी झोंकने, टैक्स छूट, राहतें देने पर भी ऊपर जाने का नाम नहीं ले रहा है।

यहाँ भारत सरकार की अपनी वित्तीय स्थिति को देखें तो वह अभी भारी वित्तीय संकट से जूझ रही है। आम चुनाव के पूर्व वित्तीय संकट की गम्भीरता को कम दिखाने हेतु इस साल आयकर के रिफ़ण्ड बहुत धीरे दिये जा रहे हैं, लगभग 1 लाख करोड़ रुपये के रिफ़ण्ड रोक रखे गये हैं। जीएसटी के रिफ़ण्ड की भी यही स्थिति है। फिर भी पहले 7 महीनों में ही वित्तीय घाटा पूरे वित्तीय वर्ष के बजट लक्ष्य का 104% हो चुका है। कोटक सिक्योरिटीज़ की रिपोर्ट के अनुसार जीएसटी वसूली लक्ष्य से एक लाख करोड़ रुपये कम रहने वाली है। वित्तीय घाटे को छिपाने के लिए सरकार ऑफ़ बजट वित्तपोषण का भी सहारा ले रही है अर्थात अपने ख़र्चों के लिए जाने वाले क़र्ज़ सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के नाम पर ले रही है जिन्हें बजट में दिखाने की आवश्यकता न हो। जैसे रेलवे में काम इरकॉन के नाम पर क़र्ज़ लिया गया, विद्युत क्षेत्र में कुछ करना है तो पावर फाइनंस कॉर्पोरेशन के नाम पर और खाद्य सबसिडी है तो एफ़सीआई के नाम पर। इसीलिए बजट के आँकड़े देखें तो सरकार पर क़र्ज़ कम नज़र आता है। लेकिन यह ख़र्च बजट सम्बन्धित घोषणाओं पर ही हुआ है और अन्त में इसका भुगतान भी सरकारी कोष से ही होगा। तब अचानक पता चलेगा कि भारी संकट है, शायद ठीक चुनाव बाद वाले बजट में। फिर संकट से निपटने के लिए उपाय होगा – जनता पर नये टैक्स लादो, किराये-भाड़े, बिजली-डीजल की दर बढ़ाओ, राशन, शिक्षा-दवाई में कटौती करो, या औने-पौने दामों में कुछ सार्वजनिक सम्पत्तियों का निजीकरण कर दो।

उधर सीएमआईई के अनुसार दिसम्बर 2018 में समाप्त तिमाही में उद्योगों में नये पूँजी निवेश के निर्णय पिछले 14 साल के निम्नतम स्तर पर हैं। इस स्थिति में नये रोज़गार सृजन की बात तो भूल जाना ही बेहतर है। बल्कि 2018 के वर्ष में ही 1 करोड़ 10 लाख रोज़गार नष्ट हो गये। दिसम्बर 2017 में 40 करोड़ 80 लाख व्यक्ति रोज़गाररत थे, किन्तु दिसम्बर 2018 में घटकर 39 करोड़ 70 लाख ही रह गये। 91 लाख लोग गाँवों में बेरोज़गार हुए तो 18 लाख शहरों में। 88 लाख महिलाओं को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा तो 22 लाख पुरुषों को। बेरोज़गार होने वाली महिलाओं में से 65 लाख ग्रामीण हैं और 23 लाख शहरी। यह भी सामने आया कि अधिकांश बेरोज़गार हुए लोग ग़रीब सफ़ाई करने वाले, चपरासी, चौकीदार, दिहाड़ी, ठेके वाले मज़दूर हैं। बात साफ़ है कि जो पहले से ही पिछड़े, ग़रीब, शोषित हैं, उन पर पूँजीवादी व्यवस्था का संकट उतनी ही अधिक मुसीबतों का बायस बन रहा है।

साथ ही बैंकिंग व्यवस्था का संकट पहले की तरह ही बदस्तूर जारी है। बैंकों की स्थिति बेहतर दिखाने के लिए उन्हें छूट दी जा रही है कि वे डूबे क़र्ज़ों को भी एनपीए वर्गीकृत न करें। लघु एवं मध्यम उद्योग, विद्युत क्षेत्र, आदि के लाखों करोड़ रुपये के डूबे क़र्ज़ इसी प्रकार छिपाये जा रहे हैं। लेकिन कुछ समय बाद ये सब एक झटके में ही एनपीए बनेंगे। मोदी द्वारा बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित मुद्रा ऋणों का हाल भी रिज़र्व बैंक की हाल की रिपोर्ट में सामने आ गया है। बेरोज़गारी मिटाने हेतु स्व-रोज़गार को प्रोत्साहित करने वाले क़र्ज़ में होने वाले एनपीए का हाल देखिए : 2015-16 के वर्ष में 597 करोड़ रुपये, 2016-17 के साल में 3790 करोड़ रुपये और 2017-18 के वर्ष में बढ़कर 7277 करोड़ रुपये। रिज़र्व बैंक ने सरकार को चेतावनी भी दी है कि ये मुद्रा क़र्ज़ आगे डूबे क़र्ज़ों का एक बड़ा स्रोत सिद्ध होने वाले हैं। बात फिर वही है कि जब आर्थिक संकट का मर्ज पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों से पैदा हो रहा है तो क़र्ज़ देकर बाज़ार में नक़दी फेंकने से उसका इलाज करने की बात ऐसी ही है, जैसे भूख से कमज़ोर व्यक्ति को विटामिन की रंगबिरंगी गोलियाँ देना। स्पष्ट पता चलता है कि इससे कितना रोज़गार प्राप्त हो रहा है। हाँ, अब नोटबन्दी-जीएसटी से कुछ उखड़े संघ समर्थक छोटे कारोबारी तबक़े को चुनाव से पहले साधने के लिए रिज़र्व बैंक ने इनके लिए नयी योजना का ऐलान किया है। इसके अन्तर्गत लघु-मध्यम कारोबारों के 25 करोड़ रुपये तक के क़र्ज़ अगर नहीं भी चुकाये जा रहे हों तो भी बैंक उन्हें अभी एनपीए घोषित करने के बजाय पुनर्गठित कर देंगे। अर्थात क़र्ज़ चुकाने के लिए तय वक़्त में छूट दे देंगे।

रिज़र्व बैंक की ट्रेण्ड्स एण्ड प्रोग्रेस ऑफ़ बैंकिंग इन इण्डिया नामक इसी रिपोर्ट में ही बड़े पैमाने पर डूबे क़र्ज़ों के राइट ऑफ़ की सच्चाई भी सामने आयी। जब हम कहते हैं कि पूँजीपतियों के क़र्ज़ बड़े पैमाने पर माफ़ कर दिये गये हैं तो बीजेपी की ओर से भक्त अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ ‘तर्क’ देते आये हैं कि ये माफ़ नहीं किये गये सिर्फ़ तकनीकी तौर पर राइट ऑफ़ किये गये हैं और राइट ऑफ़ करने का अर्थ यह नहीं कि अब ये वसूल नहीं किये जायेंगे। अब रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट के निम्न आँकड़े देखिए : एनपीए राइट ऑफ़ (2014-15 से 2017-18) = 3,16,515 करोड़ रुपये; इसी दौर में राइट ऑफ़ किये गये क़र्ज़ में से हुई वसूली = 32,693 करोड़ रुपये। अगर हम इसके आधार पर ही देखें तब भी ज़ाहिर है कि राइट ऑफ़ के बाद वसूली 10% ही है। लेकिन असल बात समझने के लिए यह भी जानना ज़रूरी है कि जैसे ही क़र्ज़ एनपीए होता है बैंक उस पर लगने वाला ब्याज और अन्य दण्ड जोड़ना बन्द कर देता है अर्थात राइट ऑफ़ की गयी रक़म असली देनदारी नहीं बल्कि मात्र मूल रक़म ही होती है। अगर जमा न किये गये सूद व दण्ड को जोड़कर असली देनदारी का हिसाब लगाया जाये तो राइट ऑफ़ की पूरी रक़म में से वसूली सिर्फ़ 5-6% ही होती है। 100 रुपये क़र्ज़ की रक़म में से मात्र 5-6 रुपये की वसूली और बाक़ी बट्टे खाते में डालने को क़र्ज़ माफ़ी न माना जाये तो क्या माना जाये? मुनीमगिरी की इस हेराफेरी से क्या इस वास्तविकता को छिपाया जा सकता है कि बैंकिंग व्यवस्था के ज़रिये मेहनतकश जनता की लूट और सरमायेदारों को ख़ैरात का एक बड़ा भारी गोलमाल चालू है?

दिवालिया क़ानून के ज़रिये मोदी द्वारा बैंक क़र्ज़ों की वसूली के व्हाट्सप्प फ़ॉरवर्ड तो ख़ूब चलाये गये हैं, पर इस मामले में भी असलियत कुछ और ही है। रुचि सोया नामक कम्पनी के मामले में अदानी विल्मार ने 5700 करोड़ रुपये की बोली लगायी और इस वसूली की ख़बर मीडिया में ख़ूब ज़ोरों से आयी। पर जब भुगतान का वक़्त आया तो अदानी ने इंकार कर दिया, कहा बोली लगाते वक़्त तथ्यों की सही जानकारी नहीं थी। पर अब ये ख़बर मीडिया में बहुत छोटी सी कहीं आयी। ऐसा ही मामला अमटेक ऑटो, आधुनिक मेटल्स, आरकिड फ़ार्मा का भी है जहाँ ऐसी ही बड़ी रक़म की बोली की बड़ी ख़बर के बाद असल में कोई भुगतान न होने की बात गुपचुप दब गयी। सिर्फ़ इस्पात ही एक ऐसा क्षेत्र था जहाँ टाटा, मित्तल और जिन्दल की प्रतियोगिता के कारण भूषण इस्पात कुछ अच्छे दामों में टाटा ने ख़रीद ली। यही एक बड़ी वसूली है जो नतीजे पर पहुँची है। अन्यथा दिवालिया क़ानून में जाने वाले 80% से अधिक मामलों में कोई ख़रीदार ही नहीं मिल रहा है और कम्पनियाँ बन्द होकर उनकी सम्पत्ति कबाड़ के मोल बेची जा रही है। जहाँ ख़रीदार मिल भी रहे हैं, वहाँ कितनी वसूली हो रही है, उसके कुछ उदाहरण ये हैं : जिआन इस्पात = 5,367 करोड़ रुपये में से 0.03%, सिनर्जी दूरे ऑटो = 972 करोड़ रुपये का 5.6%, ओड़ीसा मैंगनीज = 5,388 करोड़ रुपये का 5.8%, आधुनिक मेटल्स = 5,371 करोड़ रुपये का 7.6%, मोनेट इस्पात = 11,015 करोड़ रुपये का 26%।

लेकिन डूबने वाली यह सारी रक़म पूँजीपति वर्ग की सरकारें मेहनतकश जनता से ही वसूल करने वाली हैं, नये-नये शुल्क लगाकर, अप्रत्यक्ष कर बढ़ाकर, किराया-भाड़ा बढ़ाकर, नियन्त्रित वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ाकर, वग़ैरह। मनीलाइफ़ फ़ाउण्डेशन द्वारा हाल में लगाये गये एक मोटे हिसाब के अनुसार मात्र बैंक ही सालाना एक लाख करोड़ रुपये आम लोगों से विभिन्न नामों पर उगाह ले रहे हैं जिनमें 10 हज़ार करोड़ से अधिक तो सिर्फ़ न्यूनतम बैलेंस न होने पर लगाया गया शुल्क है। यह शुल्क सबसे ग़रीब लोगों, नरेगा में मज़दूरी करने वालों, प्रवासी मज़दूरों, आदि पर ही लगता है, जो खाते में न्यूनतम बैलेंस नहीं रख पाते और अपने ख़ून-पसीने से कमाई रक़म का एक हिस्सा बैंकों को लुटवा बैठते हैं, ताकि ये बैंक बड़े सरमायेदारों के क़र्ज़ माफ़ कर सकें।

इस बीच एक ध्यान देने लायक़ समाचार मोदी की ग़रीबों के मुफ़्त इलाज के नाम पर शुरू की गयी ‘आयुष्मान भारत’ योजना के बारे में है। 8 जनवरी 2019 को मोदी की इस योजना को सफल बनाने के लिए सरकार ने निजी निवेश को प्रोत्साहित करने वाले कुछ फ़ैसले लिये हैं। इसके अनुसार सरकार निजी अस्पतालों को हर शर्त व भार से मुक्त ज़मीन देगी। अस्पताल को लाभप्रद बनाने हेतु निर्माण की कुल लागत का 40% देगी। पूँजीगत लागत पर कर का 50% भी सरकार देगी। पर इसके बाद भी अस्पताल पूरी तरह निजी मालिकाने में ही रहेगा। कुल मिलाकर मतलब यह कि अस्पताल बनाने में लागत शून्य ही नहीं बल्कि मालिकों को निर्माण से पहले ही मुनाफ़ा हो जायेगा। लागत को दोगुना-तिगुना दिखाना तो बड़ा आसान काम है। इन रियायतों के नाम पर निर्माण लागत से ज़्यादा ही रक़म निजी मालिकों को मिल जायेगी और मुफ़्त में अस्पताल तैयार! फिर सरकारी बीमा योजना के बिलों से मुनाफ़ा और बाक़ी लूट अलग। लेकिन इतना पैसा ख़र्च कर तो सरकारी अस्पताल बनाकर मुफ़्त इलाज की सुविधा ही दी जा सकती थी। पूँजीवादी व्यवस्था में जनकल्याण के नाम पर शुरू की गयी योजनाओं के ख़र्च का वास्तविक लाभ किसे होता है, यह भी इससे अच्छी तरह समझा जा सकता है।

इसी बीच जारी दिसम्बर 2018 के थोक मूल्य सूचकांक के नये आँकड़े के अनुसार सूचकांक में पिछले महीनों के मुकाबले बड़ी गिरावट हुई है। दिसम्बर महीने में थोक महँगाई दर 3.80 फ़ीसदी रही है, यह पिछले 8 महीनों का सबसे निचला स्तर है। थोक महँगाई में यह नरमी ईंधन और ख़ाने-पीने की चीज़ों के सस्ता होने के चलते देखने को मिली है। जानकारी के लिए आपको बता दें कि वर्ष 2017 के दिसम्बर में थोक महँगाई दर 3.58 फ़ीसदी रही थी। सरकारी आँकड़े बता रहे हैं कि खाद्य और कृषि सामग्री में अपस्फीति की दर दिसम्बर में 0.07 थी जोकि नवम्बर में 3.31 प्रतिशत थी। मतलब साफ़ है, जहाँ कुछ बड़े किसान तो न्यूनतम समर्थन मूल्य तक पहुँच और अपनी भण्डारण क्षमता के कारण फ़सल का ठीक-ठाक मूल्य पा जाते हैं, वहीं अधिकांश छोटे सीमान्त गरजबेचा किसान अपना उत्पादन आढ़तियों व बड़े किसानों को कम क़ीमत में बेचने को मजबूर हैं। यह संकट उन किसानों के लिए और अधिक परेशान करने वाला है, जिन्होंने कृषि ऋण लेकर खेती की है। इसका सीधा फ़ायदा बड़े किसानों और आढ़तियों को हो रहा है। अतः अधिकांश किसानों के क़र्ज़ में फँसने व बर्बाद होने की दर्दनाक प्रक्रिया और भी तेज़ हो रही है। इसलिए विभिन्न चुनावबाज पार्टियों की कृषि संकट का उपाय ऋण माफ़ी द्वारा करने का दावा भ्रमजाल और पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी से ज़्यादा कुछ नहीं है।

सरकारी वित्तीय स्थिति की वर्तमान हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि अगले आम चुनाव के बाद सरकार मोदी नेतृत्व वाले राजग की आये या राहुल गाँधी वाले यूपीए या किसी तीसरे की, सम्भवतः जुलाई में पेश होने वाले पहले ही बजट में इस सारे संकट का बोझ आम मेहनतकश जनता पर डाला जायेगा और उनकी स्थिति पहले इस मार के कारण पहले से भी बदतर होने वाली है। वैश्विक स्तर से देशी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तक का यह घनघोर ढाँचागत संकट ही है, जो अब किसी सरकार को साल या महीने तो छोडि़ए, कुछ दिनों के लिए भी जनपक्षधर होने का मुखौटा ओढ़ने तक का मौक़ा नहीं दे रहा है। लोकसभा चुनावों के ठीक कुछ महीने पहले बनी कुछ राज्यों की कांग्रेस सरकारें तक आसन्न चुनावों में फ़ायदे के लिए अस्थाई तौर पर भी जनपक्षधर होने का दम नहीं भर पायीं और अपना मुखौटा नोचकर सरमायेदारों के सेवक होने के अपने असली स्वरूप में आ गयीं। यही केन्द्र की सरकार के स्तर पर भी होने वाला है। किसी भी दल या गठबन्धन की सरकार हो अगर उसे आर्थिक क्षेत्र में जनता पर निर्मम हमला बोलना है तो राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रतिगामी होना ही पड़ेगा और फ़ासिस्ट ताक़तों को जनता पर हरचन्द हमले, उन्हें आपस में बाँटने की छूट भी देनी ही होगी, ये सभी बुर्जुआ चुनावी दलों की अनिवार्य ज़रूरतें हैं, चाहे उनके भाषण, घोषणाएँ, आदि कुछ भी कहती हों।

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