संपादकीय

नीरव मोदी और पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) के घोटाले और उसकी आलोचना के बीच केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार के विरोध में कुछ खास कदमों की शुरुआत कर दी है। गत गुुरुवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भगोड़ा आर्थिक अपराधी (एफईओ) विधेयक को मंजूरी दे दी। इसका लक्ष्य है उन लोगों की संपत्ति जब्त करना जो एक अरब रुपये से अधिक की धोखाधड़ी के आरोप के बाद पुलिस या अदालती समन से बचते हैं। विधेयक में एक विशेष अदालत के गठन का प्रस्ताव रखा गया है जो ऐसे कथित धोखेबाजों को आर्थिक अपराधी घोषित कर सके। इससे इनकी संपत्ति जब्त करने, उसका निपटान करने में आसानी होगी।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह दलील भी दी कि अगले कदम के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता होगी ताकि विदेशों में एकत्रित की गई संपत्ति बरामद की जा सके। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इसके लिए क्या व्यवस्था बनाई जाएगी। कुछ अहम नियामकीय कदमों को भी मंजूरी दी गई। मिसाल के तौर पर राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण (एनएफआरए) का निर्माण जो सनदी लेखाकारों का नियमन करेगा। एनएफआरए का विचार सन 2013 में पारित कंपनी अधिनियम से आया है इसलिए किसी कानूनी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। आखिर में सरकार ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए केंद्र के स्तर पर लोकपाल के गठन की प्रक्रिया भी शुरू करने की बात कही है। भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता पांच साल से भी अधिक समय से इसकी मांग करते रहे हैं।

बीते 10 दिनों में सरकार ने भ्रष्टाचार के विरोध में और धोखाधड़ी रोकने के लिए व्यवस्था बनाने में जो सक्रियता दिखाई है वह सराहनीय है। बहरहाल, अभी भी कुछ कमियां हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। एफईओ विधेयक को लेकर अब जो सक्रियता है वह सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने जैसी है। मौजूदा मामलों में आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्यर्पण के लिए अनुरोध किया जाए और बाकी कानूनी कदम उठाए जाएं।

उदाहरण के लिए भगोड़े शराब कारोबारी विजय माल्या के खिलाफ प्रत्यर्पण के मामले में हम मजबूती से दलीलें पेश कर सकते थे। इसी तरह एनएफआरए के बारे में सवाल उठ सकता है कि सरकार ने कंपनी अधिनियम द्वारा इसकी मंजूरी के बावजूद पांच साल प्रतीक्षा क्यों की? हालांकि इसे इस बात की स्वीकारोक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है कि सनदी लेखाकार आत्म नियमन के मामले में अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। बीते दशक के दौरान कई घोटालों के मामलों में अंकेक्षकों का आश्वस्त होना देखा गया है। वैसे भी इस क्षेत्र में किसी तरह का नियमन जरूरी था। कई अन्य अर्थव्यवस्थाएं ऐसी हैं जो लंबे समय से अंकेक्षण जगत के पेशेवरों के आत्मनियमन के साथ ही काम कर रही हैं।

लोकपाल की नियुक्ति के संबंध में पहल तब हुई है जबकि कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने सरकार द्वारा लोकपाल की स्थापना न कर पाने पर सवाल उठाया और सर्वोच्च न्यायालय ने लोकपाल अधिनियम के क्रियान्वयन पर सवाल उठाया। गत सप्ताह सरकार ने नए लोकपाल के गठन के लिए चयन समिति की एक बैठक आयोजित की। बहरहाल, लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने बैठक का बहिष्कार किया और कहा कि उन्हें समिति में विशेष आमंत्रित के रूप में बुलाया जा रहा था, न कि नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में। खडग़े ने कहा कि उन्हें इस पद के लिए प्रस्तावित लोगों के नाम तक मुहैया नहीं कराए गए। इस गतिरोध को सहज तरीके से समाप्त करना आवश्यक है। सरकार को विपक्ष को साथ लेकर चलना होगा। बदले में कांग्रेस को भी तार्किक और सहयोगी भूमिका निभानी होगी।

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