*देवाशिष बसु*

जिस समय पीएनबी घोटाला हो रहा था, आरबीआई क्या कर रहा था? बैंक का शीर्ष प्रबंधन उस वक्त क्या कर रहा था? अंकेक्षक उस वक्त क्या कर रहे थे? ऐसे कई सवाल उठा रहे हैं देवाशिष बसु

एक और बैंक घोटाला सामने आया है जिससे समूची जनता में निराशा व्याप्त है। इस बार भी नाम एक सरकारी बैंक- पंजाब नैशनल बैंक का ही आया है। आभूषण कारोबारी नीरव मोदी और उनके मामा मेहुल चोकसी (चर्चित संस्थागत विदेशी निवेशकों में से एक) ने कथित तौर पर बैंक को 11,000 करोड़ रुपये का चूना लगाया और अमेरिका भाग गए। पूरा देश इनके दुस्साहस और बैंकों की मूर्खता पर हैरान है। इसके ठीक पहले भारतीय स्टेट बैंक ने भी अपना मुनाफा 36 फीसदी बढ़ाकर दिखाने और 23,239 करोड़ रुपये अथवा 21 फीसदी के फंसे हुए कर्ज की बात स्वीकार की थी। ऐसे घोटालों और व्यवस्था की इस नाकामी पर एक सहज नाराजगी भरी प्रतिक्रिया यह होती है कि इसके लिए कौन उत्तरदायी है।

भारतीय रिजर्व बैंक क्या कर रहा था? बैंक का शीर्ष प्रबंधन क्या कर रहा था? बैंक की आंतरिक सुरक्षा कैसी थी और अंकेक्षक क्या कर रहे थे? आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर और पीएनबी के पूर्व चेयरमैन के सी चक्रवर्ती कहते हैं कि बैंक के तंत्र में खामियां थीं जिन्हें ठीक करना चाहिए। ये तमाम उपाय जवाबदेही और जिम्मेदारी के इर्दगिर्द ही घूमते हैं। इसके लिए स्वामित्व और बैंकों का नियंत्रण बदलने की आवश्यकता नहीं है। सरकारी बैंक अपने स्वामित्व और नियंत्रण के तौर तरीकों के कारण निरंतर संकट में हैं। उन्हें दुरुस्त करने की बात तब से बार-बार दोहराई जा रही है जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं। मैं तीन साल में अपने स्तंभ के जरिये कई बार कह चुका हूं कि उन्हें सफलता नहीं मिलेगी। दिसंबर 2014 में मैंने लिखा था, ‘मुझे आशंका है कि वह वित्तीय क्षेत्र के सुधार में बहुत प्रगति नहीं कर पाएंगे। सरकारी बैंकों को 2.4 लाख करोड़ रुपये की पूंजी 2018 तक चाहिए ताकि वे बेसल 3 मानकों का पालन कर सकें। फंसे हुए कर्ज वाले 30 शीर्ष खातों में 87,368 करोड़ रुपये की राशि है। यानी सरकारी बैंकों के कुल एनपीए का 35.9 फीसदी।

इन आंकड़ों के अलावा सरकारी स्वामित्व के कारण भ्रष्टाचार, राजनैतिक हस्तक्षेप, विकृत पूंजीवाद, नियामकीय विफलता और बार-बार पूंजीकरण देखने को मिल रहा है। अगर ये सवाल नहीं पूछे जाएंगे यथास्थिति बनी रहेगी और भारतीय अर्थव्यवस्था और सरकारी बैंकिंग तंत्र का लडख़ड़ाना जारी रहेगा।’ एकदम यही हुआ। नाकाम ज्ञान संगमों के अलावा मोदी सरकार ने इंद्रधनुष योजना की शुरुआत की और बैंक्स बोर्ड ब्यूरो की बात की। इसका काम था बैंकों में शीर्ष नियुक्तियां करना और फंसे हुए कर्ज की समीक्षा करना।

अगस्त 2015 में मैंने इस बेकार की छेड़छाड़ के बारे में काफी कुछ लिखा था। दुख की बात है कि यह भी सही साबित हुआ। सरकार आखिर कहां चूक कर रही है? इसका जवाब दो अलग-अलग रुखों में निहित है जिनके बीच करीब 700 साल का अंतर है। इनमें से एक है वर्ष 2014 की बेस्ट सेलर जस्ट वन थिंग, जिसे लिखा है गैरी केलर और जे पापासन ने तो दूसरा है एक मध्यकालीन दार्शनिक विचार जिसे ओकम रेजर कहा जाता है। पुस्तक में कहा गया है कि आप अपने समय, पैसे और प्रयासों के नतीजों में नाटकीय सुधार ला सकते हैं बशर्ते कि हर मुद्दे पर और समय आप एक साधारण सा सवाल सामने रखें: मैं ऐसा क्या कर सकता हूं कि जिसे करने से हर कुछ आसान या अनावश्यक हो जाए? यह सवाल आपको न केवल बड़े सवालों के जवाब तलाश करने का अवसर देगा (मैं कहां जा रहा हूं? मुझे किस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए काम करना चाहिए?)। साथ ही इसका संबंध छोटे लक्ष्यों से भी है, मसलन मुझे अभी क्या करना चाहिए ताकि मैं बड़े लक्ष्य की ओर बढ़ सकूं? अगर नीति निर्माता इसे सरकारी बैंकों पर लागू करके देखें तो वे खुद से पूछेंगे कि हमें सरकारी बैंकों के साथ ऐसा क्या करना चाहिए ताकि सबकुछ आसान हो जाए (फंसा कर्ज कम हो, घोटाले रुकें और क्षमता सुधरे) या अनावश्यक?

हम इसके जवाब पर आएंगे लेकिन पहले यह देखते हैं कि ओकम रेजर हमारी क्या मदद कर सकती है। जैसा कि आप में से कुछ लोग जानते ही होंगे ओकम रेजर समस्या हल करने का एक तरीका है जिसे विलियम ऑफ ओकम नामक अंग्रेज दार्शनिक ने विकसित किया था। यह सुझाता है कि जब कई हलों में से एक को तलाश करने में मुश्किल आए तो तो ऐसा हल चुनना चाहिए जिसमें सबसे कम अनुमान शामिल हों। अब सरकारी बैंकों पर इसे लागू करके देखते हैं। कोई भी दो रुख अपना सकता है। पहला, स्वामित्व और नियंत्रण को समान रखते हुए व्यवस्था और शीर्ष नेतृत्व में बदलाव लाकर बेहतर और सक्षम संस्थान का निर्माण करना। इसमें कई तरह के अनुमान शमिल हैं।

दूसरा है स्वामित्व में बदलाव और पूरी जिम्मेदारी नए मालिकों पर डालते हुए समस्या को हल करना और जो भी परिणाम हो उसके लिए तैयार होना। इसमें किसी अनुमान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हलों का कोई समुच्चय नहीं बल्कि समस्या से पूर्ण निजात का तरीका है। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार को इस समस्या को हल करने के लिए स्वामित्व बदलने पर विचार करना चाहिए। तथ्य यही है कि पीएनबी जैसे तमाम भ्रष्टाचार फंसे हुए कर्ज एवं अन्य समस्याएं केवल इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि बैंकों का स्वामित्व सरकार के पास है। निजी बैंकों पर नजर डालें तो वे किफायती हैं और उनमें भ्रष्टाचार भी कम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वहां जवाबदेही सुनिश्चित है।

परंतु मुद्दा वह है ही नहीं। बात दरअसल यह है कि अगर निजी क्षेत्र के बैंकों में कोई घोटाला होता है तो केवल उसके अंशधारक ही इससे प्रभावित होंगे और कुछ हद तक जमाकर्ता। जबकि सरकारी बैंकों का असर बहुत बड़े पैमाने पर होता है। हल यही है कि सरकारी बैंकों में जनता का धन बार-बार लगाने के बजाय उनका स्वामित्व बदला जाए

सरकार और रिजर्व बैक नोटबंदी के बाद बैंकिंग व्यवस्था की खामियां पता न कर सकी
पंजाब नेशनल बैैंक में बड़ा घोटाला सामने आने के बाद बड़े पैमाने पर बैैंक कर्मचारियों के तबादले के साथ वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैैंक की ओर से बैैंकिंग व्यवस्था की खामियां पता करने की कोशिश एक तरह से चिड़िया चुग गई खेत वाली कहावत को ही चरितार्थ कर रही है। बैैंकिंग व्यवस्था के साथ सरकार की साख को बट्टा लगाने वाले कारनामे के बाद दिखाई जा रही सक्रियता से तो यही लगता है कि सभी जिम्मेदार लोग घोटाला होने का इंतजार कर रहे थे। आखिर नीरव मोदी की कारगुजारी का पता लगने के पहले किसी ने इसकी चिंता क्यों नहीं की कि सरकारी बैैंक आवश्यक नियम-कानूनों और निगरानी तंत्र का पालन करते हुए पर्याप्त सतर्कता बरत रहे हैैं या नहीं? क्या वित्त मंत्रालय और साथ ही रिजर्व बैैंक को तभी नहीं चेत जाना चाहिए था जब नोटबंदी के बाद यह साफ हो गया था कि बैैंकों ने जमकर मनमानी की है?

रिजर्व बैैंक की यह जवाबदेही बनती है कि उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित इलेक्ट्रॉनिक वित्तीय प्लेटफार्म स्विफ्ट को कोर बैैंकिंग सिस्टम के दायरे में लाना अनिवार्य क्यों नहीं बनाया? इस सवाल का जवाब इसलिए मिलना चाहिए, क्योंकि 2016 में बांग्लादेश में एक बैैंक से हुई 8.1 करोड़ डॉलर की धोखाधड़ी में स्विफ्ट संदेश प्रणाली की ही खामी सामने आई थी। समझना कठिन है कि इसके बाद रिजर्व बैैंक ने भारतीय बैैंकों से केवल सावधान रहने को कहकर कर्तव्य की इतिश्री क्यों कर ली? आखिर उसने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि बैैंक हर हाल में स्विफ्ट संदेश प्रणाली को कोर बैैंकिंग सिस्टम का हिस्सा बनाएं? अगर रिजर्व बैैंक ने बैैंकों को इसके लिए बाध्य किया होता तो शायद नीरव मोदी का गोरखधंधा पहले ही पकड़ में आ जाता।

पंजाब नेशनल बैैंक के घोटाले पर वित्त मंत्री की ओर से यह जो संकेत दिया गया कि बैंक प्रबंधन और ऑडिटर्स के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है उसके संदर्भ में भी यह सवाल उठता है कि आखिर इसके पहले और खासकर तभी बैैंकिंग प्रबंधन और बैैंकों की अॉडिट व्यवस्था को दुरुस्त करने की कोई ठोस पहल क्यों नहीं हुई जब फंसे कर्ज की समस्या बेलगाम होती दिख रही थी? सरकारी बैैंकों की नियामक संस्था रिजर्व बैैंक के साथ यह नैतिक जिम्मेदारी तो वित्त मंत्रालय की भी बनती थी कि वह बैैंकों के कुप्रबंधन को ठीक करने के लिए अपने स्तर पर उचित कदम उठाता। यदि सरकारी बैैंकों के फंसे कर्ज एनपीए में तब्दील होते जा रहे हैैं और सक्षम लोग कर्ज लौटाने के बजाय बहाने बनाकर मौज कर रहे हैैं तो इसीलिए कि बैैंकों का प्रबंधन कुप्रबंधन का पर्याय बन गया है। इसी कुप्रबंधन के कारण सरकारी बैैंक आम आदमी के बजाय संदिग्ध किस्म के लोगों के हितों की पूर्ति अधिक कर रहे हैैं। उनके गोरखधंधे की वजह से ही उनकी साख रसातल में जा लगी है। रिजर्व बैैंक के साथ-साथ सरकार को यह समझ आ जाना चाहिए कि अगर बैैंकिंग व्यवस्था सुधरी नहीं तो उस पर से लोगों का भरोसा उठ सकता है और वे देश के साथ-साथ विदेश में भी बदनाम हो सकते हैैं। ऐसी कोई स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट की ओर ही ले जाएगी।

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