शेखर गुप्ता

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने अपने हालिया बजट में देश के मध्य वर्ग की बचत को ही निशाने पर लिया है। राजनीतिक जरूरतों के लिए धन खर्च करने के चलते जब भी हमारी सरकार नकदी की तंगी में रहती है तो वह असहाय मध्य वर्ग का गिरेबान पकड़ती है। खासतौर पर उनका जो वेतनभोगी हैं। उनका गला सरकार अपनी मर्जी से दबा सकती है। उनके पास जुबान नहीं है, न ही वे निर्धारित वोटबैंक हैं और न उनकी साझा पहचान है। बस उनका गला पकडि़ए, पीछे लात लगाइए और वे उगल देंगे। इसकी आपको कोई राजनीतिक कीमत भी नहीं चुकानी होगी।बल्कि वे जितनी शिकायत करेंगे उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इससे गरीबों को एक तरह की संतुष्टि मिलेगी। फिलहाल हम इसे राजनीति का नोटबंदी मॉडल कह सकते हैं। कुछ ऐसा नाटकीय कीजिए कि गरीबों पर असर पड़ भी रहा हो तो आप उनसे जाकर कह सकें कि कृपया बरदाश्त कर लीजिए आपको अंदाजा भी नहीं है कि अमीरों को कितना कष्ट हो रहा है। यह अलग बात है कि अमीरों को कभी कष्ट नहीं होता। गरीबों को होता है लेकिन वे तो हमेशा ही दिक्कत में रहते हैं। मध्य वर्ग को आप कभी भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। राजस्व के लिए, राजनीति के लिए या सिर्फ अपनी खुशी के लिए।

हालिया बजट में ऐसा कुछ नहीं था जो इसे सुर्खियों में लाए। इसे अगले दिन सुबह तक हमारी स्मृतियों तक से गायब हो जाना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शेयर बाजार और बॉन्ड बाजार में मचे हाहाकार ने इसे हमारी याद में बनाए रखा है। इस बजट के बाद बाजार में मची मारकाट को देखते हुए इसे प्रणव मुखर्जी द्वारा अतीत की तिथि से लागू होने वाले वोडाफोन संशोधन की श्रेणी में रखा जा सकता है। यह इतना बुरा था कि उनके बाद के दो वित्त मंत्रियों ने अपने छह बजटों में इसे हाथ लगाने का साहस नहीं दिखाया है। मुखर्जी के बाद पी चिदंबरम के तीन बजटों में भी ऐसी बातें थीं जिन्होंने बाजार को प्रभावित किया। इनमें बैंकिंग नकदी लेनदेन कर, प्रतिभूति लेनदेन कर और एंप्लॉयी स्टॉक ऑप्शंस टैक्स का पुनर्लेखन शामिल था। इस बजट में मध्य वर्ग की बचत के उस जरिये पर हमला किया गया जो पिछले एक दशक से उसके लिए राहत बना हुआ था। यह है म्युचुअल फंड पर कर लगाने का फैसला। इस कदम की तुलना अतीत में बाजार पर असर डालने वाली किसी भी घटना से हो सकती है। इसके बाद मध्य वर्ग के पास कोई रास्ता नहीं बचा।

मैं यह लिख रहा हूं क्योंकि बिज़नेस स्टैंडर्ड लिमिटिड के चेयरमैन टी एन नाइनन जो कि देश में अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करने वाले सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं, उन्होंने भी कुछ सप्ताह पहले अपने साप्ताहिक स्तंभ में शेयरों पर फिर से दीर्घावधि का पूंजीगत लाभ कर लगाने की मांग की थी। उन्होंने दलील दी थी कि अगर वित्त मंत्री घाटे को कम करना चाहते हैं तो उनको शेयर से होने वाले मुनाफे पर कर लगाना होगा। जाहिर है वित्त मंत्री को उनकी सलाह उचित लगी और घाटा कम करने का इसका आर्थिक पहलू भी मजबूत है लेकिन मैं इस पर एक अलग दृष्टिकोण से बात कर रहा हूं।

पहला सवाल तो यह है कि क्या कोई सरकार अपनी चुनावी राजनीति की फंडिंग के लिए जो चाहे वो कर सकती है? भले ही इसके राजकोषीय प्रभाव कुछ भी हों? मैं सब्सिडी या गरीबोन्मुखी योजनाओं की शिकायत नहीं कर रहा हूं। लेकिन नोटबंदी जैसे विचित्र विचार का क्या जिसने पूरे वर्ष के जीडीपी के 1-2 फीसदी के बराबर राशि का नुकसान किया? इसके अलावा इससे कई छोटे रोजगार और बड़ी तादाद में रोजगार का नुकसान हुआ वो अलग। इसके पीछे की आर्थिक सोच यह थी कि इससे असंगठित क्षेत्र की लाखों करोड़ों की नकदी संगठित क्षेत्र में आएगी और देश का करदाता आधार विस्तारित होगा और कर संग्रह भी बढ़ेगा। नोटबंदी के डेढ़ साल बाद इनमें से कोई लाभ नजर नहीं आ रहा।

अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की विफलता की स्वीकारोक्ति खोज निकाली। उन्होंने ट्वीट किया, ‘यह देखना अच्छा है कि वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में नोटबंदी की बड़ी चूक को स्वीकार किया गया है। कहा गया है कि अर्थव्यवस्था में मौजूदा मंदी पूर्व में उठाए गए नीतिगत कदमों की बदौलत है।वहीं दूसरी ओर सरकार ने इक्विटी लिंक्ड म्युचुअल फंड पर कर लगा दिया। यानी यह दावा काल्पनिक साबित हुआ कि करदाताओं से लाखों रुपये जुटाए जाने हैं। दूसरी दलील राजनीतिक है। सरकारें मध्य वर्ग के साथ ऐसा व्यवहार इसलिए कर पाती हैं क्योंकि इसकी कोई लॉबी या कोई चुनावी क्षमता नहीं है। ऐसा बजट उनकी राजनीति के लिए सकारात्मक हो सकता है। बस गरीबों को यह समझाना होता है कि लाखों-करोड़ों रुपये उनकी ओर आ रहे हैं। किसानों को यह कहना होता है कि चूंकि उनके पास वोट हैं इसलिए उनका संकट दूर करने का सरकार हरसंभव प्रयास करेगी। मध्य वर्ग जो आपको मतदान करता है उसे आप योग, गो संरक्षण और मुस्लिम समस्या में उलझाकर रखिए।

तीन तलाक से हज सब्सिडी और लव जिहाद तक अनेक मुद्दे हैं उसके लिए।

कुछ आंकड़े हमारी आम बहस में सन्निहित हैं। इनमें से एक यह है कि केवल 1.7 फीसदी भारतीय आय कर चुकाते हैं। यह आंकड़ा वर्ष 2015-16 के आयकर विभाग के आधिकारिक आंकड़ों से निकला है। 130 करोड़ की आबादी और बहुत बड़ी तादाद वाले मध्य वर्ग के बीच यह थोड़ा विचित्र लगता है। मध्य वर्ग का आकार इस 1.7 फीसदी से बहुत बड़ा है, भले ही आप नीति आयोग अथवा इकनॉमिस्ट पत्रिका के अनुमानों पर भरोसा करें या नहीं। आप इस सवाल को दूसरी तरह से उठा सकते हैं। लेकिन क्या यह बहुत विचित्र नहीं कि केवल 1.7 फीसदी भारतीय ही 100 फीसदी आयकर दे रहे हैं। बेहतर सरकार सरकार वही होगी जो इस दायरे को बढ़ाने का प्रयास करेगी। नोटबंदी पहला उपाय था जिसके बाद वस्तु एवं सेवा कर लागू किया गया। परंतु हकीकत यही है कि सभी सरकारें इस लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रही हैं। यही वजह है कि बड़े कर वंचकों को पकडऩे में कामयाबी नहीं मिल सकी। इसके बदले सरकार उन पर वार करती रहती है जिनके पास छिपने की जगह नहीं है।

अब वेतनभोगी कर्मचारी अपनी बचत को कहां ले जाएंगे? क्योंकि उनके पास नकदी नहीं है, परिसंपत्ति बाजार में प्रवेश करना आसान नहीं है और राजग सरकार के चार साल के कार्यकाल में अचल संपत्ति के मूल्य में भारी गिरावट आई है। बैंकों और सरकारी बचत योजनाओं में बहुत नाम मात्र का ब्याज मिल रहा है। जबकि इन्हीं बैंकों ने ऋण दरों में कमी नहीं की है और लोगों की मासिक किस्तों में कमी नहीं आई है। सरकार की तरह ही बैंकों को भी यह पता है कि वे बड़े देनदारों द्वारा किए गए डिफॉल्ट की भरपाई मध्यवर्ग के जमाकर्ताओं से ही कर सकते हैं। इसमें घर, वाहन और शिक्षा आदि के लिए ऋण लेने वाले लोग शामिल हैं। सवाल यह है कि अब लोग अपनी बचत को कहां ले जाएं? क्या वे सोने में निवेश करें?

जब वर्ष 2004 में पी चिदंबरम द्वारा बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद बाजार में तत्काल गिरावट आई तो उन्होंने वही कहा था जो अधिकांश मामलों में वित्त मंत्री कहा करते हैं। उन्होंने कहा कि क्या मैं किसानों या ब्रोकर के लिए बजट बनाता हूं? मैंने उस वक्त भी लिखा था कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में मामला अब किसान बनाम ब्रोकर का नहीं रहेगा। क्योंकि कृषि और वित्तीय बाजार अब एक दूसरे से अलग नहीं रह गए थे। बजट में कई सुधार किए गए और इस तरह नुकसान कम करने का प्रयास किया गया। इस बार भी ऐसा ही होना चाहिए। देश का अधिकांश मध्य वर्ग शहरी है और मोदी को लेकर प्रतिबद्घ भी। गुजरात चुनाव में हमने ऐसा देखा। यह प्रतिबद्घता ऐसी है कि लोग इस बात को भी पचा गए कि इस सरकार ने चार साल में उसे तेल कीमतों में कमी का कोई लाभ नहीं दिया। अब उनकी बचत पर हमला किया गया जो गहरे जख्म देगा।

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