रस्किन बांड की एक लघुकथा में एक हास्य-त्रासद परिदृश्य आया है जहाँ एक बेतरतीब टिप्पणी से घटनाओं का एक क्रम शुरू हो गया और परिणामस्वरूप एक स्थानीय बैंक के लगभग दिवालिया हो जाने की नौबत आ गई। पीपलनगर बैंक के सफाईकर्मी लड़के नाथू ने अपने एक मित्र से अपर्याप्त व देरी से वेतन मिलने की बात कही और इस बात से यह अफवाह फैल गई कि उक्त बैंक की माली हालत खराब है। इस दिवालिये होते बैंक से फिर अपना पैसा निकालने के लिये ग्राहक टूट पड़े और वास्तव में बैंक की दिवालिया होने की स्थिति बन गई। अगली सुबह का दृश्य यह है कि नाथू खिड़ककियों के कांच चुन रहा है जो ग्राहकों ने गुस्से में तोड़ दिये थे।

कहानी के इस पीपलनगर बैंक में जो घटना हुई उसे वित्तीय भाषा में ‘बैंक रन’ कह सकते हैं। बैंक रन उस स्थिति को कहते हैं जब वित्तीय तंत्र पर किसी आशंका से प्रेरित होकर, भारी संख्या में जमाकर्ता अपना धन बैंक से निकालने लगते हैं। चूंकि बैंक आम तौर पर जमा धन का एक अंश ही कामकाज के लिये उपलब्ध रखते हैं, धन निकालने की इस होड़ का गंभीर परिणाम सामने आता है। वर्ष 1929 में शेयरों की कीमत में भारी गिरावट के बाद अमेरिका में बैंक रन का एक क्रम ही शुरू हो गया था और धीरे-धीरे अमेरिका एक भारी आर्थिक मंदी में घिर गया।
इस भारी वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद 70 वर्षों तक अपेक्षाकृत स्थिरता बनी रही लेकिन वर्ष 2007-08 में एक बार पुनः आर्थिक मंदी की स्थिति आई। सरकारी बेल-आउट का अभ्यास, विशेषकर बड़े संस्थानों के हित में जिनका विफल होना भारी नुकसानदेह होगा, ने नैतिक खतरे की एक संस्कृति को बढ़ावा दिया जहाँ वित्तीय संस्थान जोखिमपूर्ण और अनुमान-आधारित अभ्यासों में लग गए और हितधारकों के हितों की अनदेखी कर दी।
2007-08 की आर्थिक घटनाओं का सबसे बड़ा सबक यह रहा कि वन-साइज-फिट्स-ऑल फॉर्मूला तब काम नहीं करता जब शोध-अक्षमता व समाधान (इन्सोलवेंसी व रेजोल्यूशन) कार्यवाहियों की आवश्यकता होती है। बैंक, बीमा कंपनियों, स्टॉक कंपनियों और समाशोधन निगमों (क्लियरिंग कारपोरेशन) जैसे वित्तीय संस्थानों के कई गुण उन्हें कंपनियों व साझेदारी फर्मों जैसे गैर-वित्तीय संस्थानों से अलग स्थिति में रखते हैं। बैंक, बीमा कंपनियों और पेंशन फंड जैसे कुछ वित्तीय संस्थान उपभोक्ता जमा जैसे संवेदनशील विषय से संबद्ध होते हैं, तो स्टॉक एक्सचेंज और क्लियरिंग कारपोरेशन जैसे वित्तीय संस्थान वित्तीय बाजारों से संलग्न हैं। इसके अतिरिक्त, चूंकि आधुनिक वित्तीय तंत्र अधिकाधिक परस्पर-संबद्ध प्रकृति का है, इसलिये किसी एक क्षेत्र की विफलता का भी दूरगामी प्रभाव उत्पन्न होता है और यह पूरी अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर सकता है।

2007-08 की घटनाओं के बाद वित्तीय संस्थानों के लिये विशेष समाधान ढांचे अपनाये जा रहे हैं जहाँ संवीक्षा का स्तर ऊँचा उठाया जा रहा है और अत्यधिक जोखिम लेने की प्रवृति को हतोत्साहित किया जा रहा है। हाल में ही संसद में पेश वित्तीय समाधान और जमा राशि बीमा विधेयक 2017 (Financial Resolution and Deposit Insurance Bill: एफआरडीआई बिल) इस दिशा में उठाया गया सकारात्मक कदम है। यह विधेयक ‘रेजोल्यूशन कारपोरेशन’ (आरसी) नामक एक नये स्वतंत्र नियामक का प्रावधान करता है। इस समाधान निगम में सभी वित्तीय क्षेत्र नियामकों (भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड, बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण और पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण) और वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधि सहित स्वतंत्र सदस्य शामिल होंगे।

वित्तीय क्षेत्र के नियामक जहाँ विवेकपूर्ण विनियमन और पर्यवेक्षण की अपनी भूमिका जारी रखेंगे वहीं आरसी वित्तीय संस्थानों में संकट की स्थितियों से निपटने पर केंद्रित होगा। वित्तीय संस्थानों की स्थिति की जाँच पाँच-बिंदु के ‘व्यवहार्यता जोखिम’ स्केल पर ‘कम व्यवहार्यता जोखिम’ से लेकर ‘अत्यंत व्यवहार्यता जोखिम’ के आधार पर होगी। एक स्वस्थ वित्तीय संस्थान के प्रति आरसी की भूमिका अत्यंत सीमित होगी और यह पर्यवेक्षी सूचना के आदान-प्रदान तक सीमित रहेगा। असफल होते किसी वित्तीय संस्थान के मामले में नियामक आरसी के साथ मिलकर इसके पुनरुद्धार का प्रयास करेंगे। किसी संस्थान के पूर्ण विफल हो जाने की स्थिति में आरसी इसे अपने नियंत्रण में ले लेगा और इसकी सुसंगत समाप्ति की निगरानी करेगा। विनियामक टकराव को रोकने के लिये एफआरडीआई बिल में आरसी और नियामकों की भूमिकाओं को स्पष्ट परिभाषित कर दिया गया है।

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