कास सूचकांक 2015 में हमें 188 देशों में 130वें स्थान पर जगह मिली है। इस मामले में हम वैश्विक औसत के भी नीचे हैं। 7-8 फीसदी जी.डी.पी. वृद्धि के बावजूद कई चुनौतियाँ अभी भी बरकरार हैं। इकोनॉमिक टाइम्स ग्लोबल बिज़नेस समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा कि उनके सुधारों का लक्ष्य नागरिकों की ज़िंदगी में बदलावा लाना है अर्थात् “बदलाव के लिये सुधार।”

पुनः प्रति व्यक्ति आय और जी.डी.पी. वृद्धि को अक्सर सरकार के द्वारा खुशहाली के रूप में पेश किया जाता है, परंतु जब सर्फ खुशहाली सूचकांक के रूप में देखा जाए, तो हम बहुत पिछड़े नज़र आते हैं। गौरतलब है कि जी.डी.पी. वृद्धि और प्रति व्यक्ति आय को अगर महँगाई के संदर्भ में देखा जाए, तो यह वृद्धि मात्र मृग मरीचिका ही साबित होती है। कई बार तो नकारात्मक पहलुओं को जी.डी.पी. वृद्धि द्वारा ढकने का भी प्रयास किया जाता है। साथ ही, प्रति व्यक्ति आय, जो कि जी.डी.पी. वृद्धि से ही निर्धारित होती है, वो औसत वृद्धि होती है न कि वास्तविक प्रति व्यक्ति को प्राप्त होती है।
जी.डी.पी. वृद्धि से किसान और मज़दूर वर्ग को शायद ही कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष फायदा होता है, हालाँकि दावे ज़रूर किये जाते हैं। उदाहरण के लिये, 1980 के दशक तक 100 रुपए वाले सामान में अनुमानतः मज़दूरी का हिस्सा 25 से 30 रुपए, लागत 50 रुपए और मुनाफा 20-25 रुपए होते थे, पर आज प्रौद्योगिकी और तकनीक के कारण लागत में गिरावट आई और लागत प्रायः घटकर 30-35 प्रतिशत तक हो गई और मुनाफा बढ़कर 55-56 प्रतिशत हो गया, पर मज़दूरी घटकर 10-15 प्रतिशत पर सिमट गई। संपत्ति का संकेंद्रीकरण कुछ खास वर्ग तक सीमित होता रहा और मज़दूरों और किसानों का शोषण बढ़ गया। इस प्रकार, देश की जी.डी.पी. वृद्धि में मज़दूरों और किसानों का योगदान सर्वाधिक होता है, पर उनकी आय वृद्धि नहीं हो पाती और देश का संतुलित विकास नहीं हो पाता।
जी.डी.पी. वृद्धि का निर्धारण मुख्यतः तीन क्षेत्रों- कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र के विकास के आधार पर तय होता है। पिछले कुछ वर्षों में जी.डी.पी. में जो भी वृद्धि हुई वो वस्तुतः सेवा क्षेत्र के प्रगति पर टिकी हुई मानी जाएगी क्योंकि कृषि और उद्योग क्षेत्र में प्रायः प्रगति कम रही है। कृषि में तो वृद्धि कुछ नकदी फसलों के उत्पादन पर निर्भर हो चुकी है। तो फिर क्या सिर्फ सेवा क्षेत्र की प्रगति को देश का संतुलित विकास कहा जा सकता है? उदाहरण के लिये, गुडगाँव, जो कि सेवा क्षेत्र का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है, यहाँ की प्रगति सिर्फ गुडगाँव (अब गुरुग्राम) के विकसित सेक्टरों और आस-पास के क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है, न कि आस-पास के गाँवों और पड़ोस के ज़िलों में। वस्तुतः यह छद्म विकास है।
देश के मध्यम और उच्च वर्ग को ध्यान में रखकर निवेश अवसरों की उपलब्धता, उद्योगों का उत्पादन और कृषक फसलों का चयन भी देश के संतुलित विकास पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। जी.डी.पी. वृद्धि हो रही है, फिर भी कोर्पोरेट जगत सरकारी कर्ज़ों को दबाए बैठा है। बैक के निवेश गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (Non Performing Assets – NPAs) में बदल रहे हैं। एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ देश की 75% आबादी 20 रुपए या कम में गुज़ारा कर रही है, हर चौथा भारतीय भूखा है, किसान कर्ज़ के दबाव में आत्महत्या कर रहे हैं।
किसी देश के लोगों की खुशहाली से जी.डी.पी. का कोई रिश्ता नहीं है। खुशहाली सूचकांक में हम नीचे हैं। यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि क्यूबा जैसे देश का जी.डी.पी. नीचा हैं परंतु उसका मानव विकास सूचकांक बहुत ऊँचा है। इसके अलावा, कुछ ऐसे भी देश हैं जैसे अमेरिका और मेक्सिको जिनका जी.डी.पी. तो ऊँचा है पर मानव विकास सूचकांक बहुत अच्छा नहीं है। इसी तरह, कुछ ऐसे भी देश हैं जिनका जी.डी.पी. ऊँचा है और गैर-बराबरी/असमानता अनुपात भी ज़्यादा है। किसी देश का गैर-बराबरी अनुपात वह अनुपात है जो उसके ऊपरी तबके के 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी और निचले तबके के 10 प्रतिशत लोगों की आमदनी के बीच में है। वर्तमान में पूंजीवाद पूरे विकास मॉडल पर छाया हुआ है। सम्पत्ति और संसाधन कुछ हाथों में सिमटते जा रहे हैं और बहुसंख्यक आबादी का सीमान्तीकरण हो गया है।
ऊँची जी.डी.पी. वृद्धि दर का असमानता घटने से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिये निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जी.डी.पी. वृद्धि विकास का एक सम्पूर्ण पैमाना नहीं हो सकता, पर विकास के लिये जी.डी.पी. वृद्धि ज़रूरी है।

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